८९. हुंडामलके मामलेको फिर चर्चा'
सर्वोच्च न्यायालयको नेटालके विक्रेता-परवाना अधिनियमके अन्तर्गत उठाये गये एक मुद्देपर फैसला देनेका एक दूसरा अवसर मिला था। इस बार डर्बन नगर परिषदके उस फैसलेपर पुनर्विचार किया गया था जो कुछ समय पूर्व इन स्तम्भोंमें प्रकाशित किया जा चुका है। परवाना-अधिकारीने हुंडामलके परवानेका ग्रे स्ट्रीटसे वेस्ट स्ट्रीट स्थानान्तरण दर्ज करनेसे इनकार कर दिया था और परिषदने उसके इस निर्णयको पुष्ट किया था। विद्वान मुख्य न्यायाधीशने जो फैसला दिया है वह अत्यन्त निराशाजनक है। वह कानूनके अनुसार हो सकता है, परन्तु औचित्यसे निःसन्देह मेल नहीं खाता। इसका प्रत्यक्ष उत्तर यह है कि न्याया- धीशोंका काम कानूनकी व्याख्या करना है, कानून बनाना नहीं। परन्तु हम आदरपूर्वक यह विचार व्यक्त करते हैं कि यदि कानूनसे एक सर्वसम्मत बुराईका इलाज नहीं होता है तो कानूनकी यह स्थिति अवश्य ही गम्भीर । परवाना-अधिकारीको उपनिवेशमें व्यापारके परवाने देनेके सम्बन्धमें व्यापक अधिकार प्राप्त हैं। विद्वान मुख्य न्यायाधीशने कहा है कि कानूनके अनुसार उसे अदालती मामलोंमें अपनी इच्छाका उपयोग न करना चाहिए। अतएव, इसका आशय यह हुआ कि परवाना-अधिकारी अपने व्यक्तिगत शत्रुसे बदला लेनेके लिए किसीको परवाना देनेसे इनकार कर दे और अदालतें उसमें हस्तक्षेप करनेमें असमर्थ होंगी। जहाँतक ऐसे मुकदमोंका ताल्लुक है, राजनीतिक वैमनस्य और व्यक्तिगत शत्रुतामें बहुत ही कम अन्तर रह जाता है। विक्रेता-परवाना अधिनियम एक प्रशासनिक कानून है। अब वह किसी भी अर्थमें राजनीतिक कानून नहीं है। परवाना-अधिकारीने श्री हुंडामलको इसलिए परवाना नहीं दिया है कि वह, निःसन्देह, जिस जातिके हुंडामल हैं उससे राजनीतिक वैमनस्य रखता है। वस्तुतः उसने अपने कारणमें यह कहा भी है। वह कारण यह है कि वेस्ट स्ट्रीटमें एशियाइयोंको और अधिक परवाने देना हितकर नहीं है। किन्तु शरारत तो हो गई है। देशका सर्वोच्च न्यायालय इस बुराईको सुधारने में अपनेको असमर्थ पाता है। प्रत्येक भारतीय परवाना दाँव- पर चढ़ा है। यदि किसी प्रकारको राहत प्राप्त करनी है तो ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंको अवश्यमेव कमर कस लेनी चाहिए, अवसरके अनुकूल काम करना चाहिए तथा जबतक यह लज्जाजनक कानून कानूनकी किताबसे हटा न दिया जाये तबतक लड़ाई बराबर जारी रखनी चाहिए। सरकार, स्थानिक संसद तथा उपनिवेश-सचिवके नाम प्रार्थनापत्र भेजे जाने चाहिए और उनका ध्यान इस मामलेकी ओर आकृष्ट करना चाहिए। यदि स्थानिक संसद, जिसके सदस्यगण, सर जॉन रॉबिन्सनके शब्दोंमें, प्रतिनिधित्वहीन ब्रिटिश भारतीयोंके न्यासी हैं, न सुनें तो भारत कार्यालय को, जो करोड़ों भारतीयोंके लिए सर्वोपरि त्यासी है, दखल देना चाहिए और नेटाल सरकारको इस बातके लिए राजी करना चाहिए कि वह भारतीयोंके साथ यह छोटा-सा न्याय करे जिसके वे अधिकारी हैं। स्वर्गीय सर हैरी एस्कम्बने इस विधेयकको पेश करते वक्त यह कहा था कि इस कानूनकी सफलता उसके अन्तर्गत प्रदत्त अधिकारोंके प्रयोगमें बरती गई नरमीके ऊपर निर्भर होगी। यदि स्थानीय अधिकारी नरमीके साथ अपने अधिकारोंका प्रयोग न करें तो सम्भवतः वे उनसे वापस ले लेने पड़ेंगे। यह कानून १. देखिए,हुंडामलका परवाना", खण्ड ४, पृष्ठ ३०० और ३२५ ।