श्री गोश और भारतीय
आठ वर्षसे भी अधिक समयसे अमलमें आ रहा है और इस बातसे कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि बहुत-से अवसरोंपर इसका प्रयोग विवेकहीनताके साथ हुआ है और वह हमेशा ही उपनिवेशके भारतीय व्यापारियोंके सिरपर नंगी तलवारकी तरह लटकता रहा है। इस तलवारको हटा लेने और मुसीबतजदा लोगोंको यह अनुभव करनेका अवकाश देनेका समय आ गया है कि वे ब्रिटिश सांविधानिक शासनके अधीन है, रूसी निरंकुशताके अधीन नहीं।
९०. श्री गॉश और भारतीय
जोहानिसबर्गके महापौर श्री जॉर्ज गॉश एक सभामें भाषण देते हुए, यों कहें कि, बहक गये। सभा हाल ही में ट्रान्सवाल प्रगतिशील संघके तत्वावधानमें पाँचेफस्टूममें हुई थी। वे जब बोले तो स्वतन्त्र विचारोंके धनी केवल गॉशके रूपमें नहीं, बल्कि प्रगतिशील संघके प्रतिनिधिके रूपमें और ऐसे व्यक्तिके रूपमें जो सरकारी पक्षके विचार व्यक्त करनेके लिए बाध्य हो, फिर चाहे वे उनके अपने मतसे मेल खाते हों या नहीं। जिन थोड़े-से लोगोंने जोहानिसबर्ग नगरपालिकाकी कार्रवाईपर सन् १९०३ में ब्रिटिश भारतीयोंके पक्ष में अपनी आवाज उठाई थी उनमें से एक श्री गॉश भी थे। तब उनका खयाल था कि एशियाइयोंकी स्पर्धा बिलकुल स्वस्थ है। वे ब्रिटिश भारतीयोंको वांछनीय नागरिक मानते थे, क्योंकि वे उद्योगी, मितव्ययी और कानून-पालक थे। जोहानिसबर्गके महापौर उन झूठी बातोंको दुहराने में भी नहीं झिझकते जो श्री लवडे और उनके मित्रोंने फैलाई थीं। ब्रिटिश भारतीयोंकी बदनामी करने में उनको हिचक नहीं मालूम होती। उनको भारतीयोंमें गोरी जातिके लिए खतरा दिखाई देता है। परन्तु कुछ समय पहले उनका विचार यह था कि जिस समाजमें वे रखे जायेंगे उसको शक्ति ही प्रदान करेंगे। उनकी दृष्टिसे, आज एशियाई लोग
सामाजिक स्थितिमें गोरोंसे पूरी तरह भिन्न है। उनको गोरे व्यापारियोंसे स्पर्धा करने देना उचित नहीं है, क्योंकि वे एक-दूसरेसे होड़ नहीं कर सकते। एशियाई लोगोंमें देशकी नागरिकताका भार उठानेका भाव बहुत कम है। वे तो सभी जरूरी जिम्मेदारियों और कर्तव्योंसे बचते हैं और अन्तमें उनका बोझ गोरोंको उठाना पड़ता है। और, फलतः, श्री गॉश गर्वसे कहते हैं :
यह न्यायोचित नहीं है कि गोरे व्यापारियोंको एशियाई व्यापारियोंके सामने खड़ा कर दिया जाये और फिर उन्हें इस खींच-तानकी भावनाके आधारपर मिट जाने दिया जाये कि चूंकि एशियाई लोग साम्राज्यके किसी दूसरे भागमें रहनेवाले ब्रिटिश प्रजाजन हैं, इसलिए उन्हें हमारी सहानुभूति प्राप्त करनेका अधिकार है। (श्री गॉश स्वयं १९०३ में इस भावनाके शिकार हो गये थे।)
श्री गॉशने हमें यह नहीं बताया है कि नागरिकताके भारका अर्थ क्या है? क्या इसका अर्थ सार्वजनिक भोज देना और शेम्पेनकी बोतलें खोलना है? हम यह स्वीकार करते हैं कि यदि यह बात हो तब तो गरीब एशियाईमें ऐसा भार उठानेकी भावना बहुत कम है। किन्तु