प्रति सप्ताह अमुक संख्यामें ही परवाने दिये जा सकते हैं। इस कार्य-प्रणालीका फल यह निकला कि सर्वत्र भ्रष्टाचार फैल गया और परवानोंके दलालोंका एक गिरोह खड़ा हो गया जो भोले शरणार्थियोंको नोचने-खसोटने लगा। यह बदनामी सब जगह फैल गई कि जो शरणार्थी ट्रान्सवालमें घुसना चाहे उसे १५ से ३० पौंड तक, या इससे भी अधिक, खर्च करना पड़ता है। ब्रिटिश भारतीय संघका ध्यान इस ओर गया, उसने प्रार्थनापत्रपर प्रार्थनापत्र दिये, और अन्तमें एशियाई दफ्तरोंको समाप्त कर दिया गया। परन्तु दुर्भाग्यवश अनुमतिपत्र देनेकी पद्धति जारी रही, और मुख्य अनुमतिपत्र-सचिव सदा औपनिवेशिक कार्यालयके निर्देशोंके अधीन ही रहा है। इस प्रकार जो शान्ति-रक्षा अध्यादेश खतरनाक लोगों और राजनीतिक अपराधियोंपर लागू करने के लिए बनाया गया था वह औपनिवेशिक कार्यालयके प्रभावमें भारतीय प्रवासी-प्रतिबन्धक अधि- नियम बन गया; और आजतक वैसा ही बना हुआ है। इसलिए, वर्तमान शासनमें भी, असली शरणार्थियों तक के लिए परवाना प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। वह बिरले लोगोंको ही मिल पाता है, वह भी महीनोंके विलम्बसे । प्रत्येक व्यक्तिको, उसकी हैसियत चाहे जो हो, एक विशेष फार्मपर प्रार्थनापत्र भरना, दो आदमियोंका हवाला देना, और फार्मपर अपना अंगूठा लगाना पड़ता है। इसके बाद जाँच की जाती है, और फिर अनुमतिपत्र दिया जाता है। मानो इतना पर्याप्त नहीं था, इसलिए श्री लवडे और उनके मित्रोंके आक्षेपोंके कारण, मुख्य अनुमतिपत्र-सचिवको हिदायत मिली कि वह यूरोपीयोंके हवाले दिये जानेका आग्रह रखे। यह ब्रिटिश भारतीय शरणार्थियोंसे देशमें प्रवेश करनेका अधिकार छीन लेनेके समान था। ऐसे बीस भारतीय भी खोज निकालना मुश्किल होगा जिन्हें सम्मानित यूरोपीय नाम और शकल-सूरत दोनोंसे जानते हों। ब्रिटिश भारतीय संघको सरकारसे पत्र-व्यवहार करना पड़ा; और इस बीच परवाने देना रोक दिया गया। हालमें जाकर यह अनुभव किया गया है कि यूरोपीयोंके हवाले देनेपर जोर देना भारी अन्याय था।
बच्चोंका प्रवेश
परन्तु यूरोपीय हवालोंके अतिरिक्त अन्य कठिनाइयाँ भी मौजूद हैं। अब १६ वर्षसे कम आयुके लड़कों तक को उपनिवेशमें आनेसे पहले परवाने लेनेके लिए कहा जाता है। फलतः, दस वर्ष और इससे भी कम आयुके बच्चोंका सीमावर्ती नगरोंमें अपने माता-पितासे पृथक् कर दिये जाना कोई असाधारण घटना नहीं रही है। समझमें नहीं आता कि ऐसा नियम क्यों मढ़ा गया है।
उच्चायुक्त : क्या आपको नजरमें कभी कोई ऐसा मामला आया है जिसमें माता-पिताने पहले ही बतला दिया हो कि हमारे साथ बच्चे हैं और फिर उन बालकोंको देशमें आनेका अनुमतिपत्र देनेसे इनकार किया गया हो?
श्री गांधी : हाँ; और माता-पिताओंको हलफनामे देने पड़े, और उसके बाद ही बच्चोंको आने दिया गया।
जहाँतक मैं जानता हूँ, यदि माता-पिताको आनेका अधिकार हो तो प्रत्येक सभ्य देशमें नाबालिग बच्चोंका भी उनके साथ आनेका अधिकार माना जाता है। कुछ हो, १६ वर्षसे कम आयुके बच्चों तक को, यदि वे सिद्ध न कर सकें कि हमारे माता-पिताका देहान्त हो चुका है अथवा हमारे माता-पिता युद्धसे पहले ट्रान्सवालमें रहते थे, उपनिवेशमें आने या रहने नहीं दिया जाता। यह बड़ी संगीन बात है । जैसा कि परमश्रेष्ठ जानते है, संयुक्त कुटुम्ब प्रणाली सारे भारतमें प्रचलित है। भाई और बहन और उनके बच्चे पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही मकानमें रहते चले आते हैं, और कुटुम्बका सबसे बड़ा व्यक्ति, नामको और वस्तुतः, दोनों प्रकार, सारे परिवारका कर्ता और पालक होता है। इसलिए यदि भारतीय अपने सम्बन्धियोंके बालकोंको अपने साथ उपनिवेशमें ले आते हैं