सरल भी है, क्योंकि यह डच सरकारकी देन है परन्तु चीनी श्रमिक अध्यादेश पिछली सरकार की रचना है। फिर भी उदारदलीय कोष-मन्त्रीको यह कहने में हिचकिचाहट नहीं हुई कि यह नेटालकी शीघ्र स्थापित होनेवाली उत्तरदायी सरकारको विरासतके रूपमें नहीं सौंपा जाना चाहिए। तब, यदि ट्रान्सवालको "एक पूर्णतम और अत्यन्त व्यापकरूपका उत्तरदायी शासन" देना ही है, तो जहाँतक एशियाई-विरोधी कानूनका सम्बन्ध है, उसके सम्मुख बिलकुल कोरा क्षेत्र उपस्थित किया जाना चाहिए। जैसा कि दो साल पहले सर विलियम वेडरबर्नने श्री चेम्बरलेनसे अत्यन्त स्पष्ट रूपसे कहा था, सम्राट्की सरकारका कर्त्तव्य डच सरकारके उन सब कानूनोंको खत्म कर देना है जिनसे युद्धकी उत्तेजना प्राप्त हुई थी। फिर यह ट्रान्सवालके लोगोंपर छोड़ देना चाहिए कि वे ब्रिटिश सरकारके विचारार्थ जैसा पसन्द करें, वैसा कानून पेश करें। अगर यह सुझाव मंजूर नहीं किया जाता, तो फिर भारतीय स्थितिकी रक्षाका दूसरा एक यही उपाय रह जाता है कि निषेधाधिकारकी सामान्य धाराके साथ ही नये संविधान में एक रक्षात्मक धारा जोड़ दी जाये। श्री एस्क्विथके शब्दोंमें, ऐसा करना अनुपयुक्त और असम्मानजनक होगा, क्योंकि इससे ट्रान्सवालके विरुद्ध इस आरोपका आभास मिलेगा कि वह साम्राज्यकी "अधिकार-कल्पना" के "विपरीत कार्य" करना चाहता है। अगर इस सवाल पर साम्राज्य-सरकार निर्हस्तक्षेपकी नीतिका अनुसरण करना चाहती है और उत्तरदायी शासनकी स्थापनासे पूर्व भारतीय-विरोधी कानून वापस नहीं लिया जाता है तो उत्तरदायी सरकार उस कानूनको मिटानेसे इनकार करनेकी पूर्ण अधिकारी होगी, जिसको सम्राट्की सरकारने छूनेका भी साहस नहीं किया।
पुनरावृत्तिका खतरा होनेपर भी भारतीय स्थितिपर विचार कर लेना ज्यादा अच्छा होगा। १८८५ के कानून ३ और सिर्फ एशियाइयोंके लिए बनाये गये अन्य कानूनों और उपनियमोंको रद कर देनेकी माँग भारतीय हमेशा करते आये हैं। किन्तु उनकी इस मॉंगके साथ इस शर्तकी जोरदार घोषणा भी जुड़ी रहती है कि वे देशमें, जैसा कि कहा जाता है, भारतीयोंको भर देना नहीं चाहते और न गोरोंका व्यापार, विशेषतः काफिरोंके साथ चालू व्यापार, ही हथियाना चाहते हैं। उन्होंने अपने लिए केवल उचित क्षेत्र माँगा है, कोई रियायत नहीं। अपनी सचाई प्रमाणित करने के लिए उन्होंने सामान्य ढंगके प्रतिबन्धात्मक कानूनका सिद्धान्त भी स्वीकार कर लिया है। केप या नेटालमें जिस ढंगका प्रवासी प्रतिबन्धक कानून है, उस ढंगके कानूनसे नये लोगों के प्रवेशका सवाल पूर्ण रूपसे हल हो जायेगा, बशर्ते कि उसमें प्रमुख भारतीय भाषाओंको मान्यता दी गई हो और वर्तमान व्यवसायोंको चलानेके लिए जितने लोगोंकी आवश्यकता हो, उतने लोग देशमें लानेकी छूट रहे। जहाँतक व्यापारकी बात है, भारतीयोंका सुझाव है कि व्यापारके नये अनुमतिपत्र देनेका नियन्त्रण स्थानीय निकायोंके हाथमें रहे और उनके निर्णयोंपर सर्वोच्च न्यायालयको पुनर्विचार करनेका अधिकार हो। अधिक से अधिक इस सीमा तक न्यायोचित रूपसे प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। एशियाई-विरोधी आन्दोलनके मूलमें व्यापारिक ईर्ष्या और भारतीय आक्रमणका हौआ ही है। यदि ये दो "खतरे" दूर कर दिये जायें तो भारतीयोंकी स्वतन्त्रताको और भी कम करने अथवा उनको "अनावश्यक रूपसे अपमानित करनेका" कोई औचित्य नहीं रह सकता। भारतीयोंको भू-सम्पत्ति खरीदने अथवा स्वतन्त्रतापूर्वक चलने-फिरनेसे वंचित रखना या उनके साथ प्राचीन गुलामोंकी तरहका सलूक जारी रखना निश्चिय ही अंग्रेजोंकी उचित-अनुचितकी कल्पनासे असंगत होगा।
इंडियन ओपिनियन, ३-३-१९०६