२६९. ट्रान्सवालकी खानोंके लिए भारतीय मजदूर
प्रस्ताव है कि भारतसे मजदूर मंगानेके लिए भारत-सरकारसे वार्ता की जाये। इस सम्बन्धमें समुद्री तारोंसे ट्रान्सवालके अखबार भरे पड़े हैं। हमें खुशी है कि जो आंग्ल-भारतीय इंग्लैंडमें हैं वे इस प्रस्तावके विरुद्ध हैं। और इसके दो कारण हैं: पहला कारण यह है कि भारतीय खान- मजदूरोंमें मृत्यु-संख्या बहुत ज्यादा होगी; और दूसरे भारतको स्वयं अपने खान-उद्योगके लिए सभी भारतीय खान-मजदूरोंकी आवश्यकता है। यह स्मरणीय है कि, जब लॉर्ड मिलनरने लॉर्ड कर्जनसे रेल-निर्माणके लिए दस हजार भारतीय माँगे थे, तब लॉर्ड कर्ज़नने कहा था कि वे तबतक कोई सहायता नहीं देंगे जबतक ट्रान्सवालवासी ब्रिटिश भारतीयोंकी शिकायतें दूर नहीं कर दी जातीं।[१] यह दो साल पहलेकी बात है। लॉर्ड कर्ज़नकी इनकारीके वक्त ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति जैसी थी आज उससे बेहतर नहीं है। इसलिए तीन पर्याप्त कारण हैं जिनके आधारपर ट्रान्सवालकी खानोंके लिए भारतीय मजदूर नहीं दिये जाने चाहिए। हम समझते हैं कि किसी भी हालत में ट्रान्सवालके प्रवासी ब्रिटिश भारतीयोंकी निर्योग्यताओंके निवारणके बदले भारतीय श्रमिकोंकी स्वतंत्रताको बेच देना कोई श्रेयस्कर कार्य न होगा और उससे बहुत बुरी मिसाल कायम होगी। हमारी सम्मतिमें, हर सवालपर उसके गुणावगुणके आधारपर ही विचार किया जाना चाहिए। हमें इसमें कोई सन्देह नहीं कि ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय अपनी स्वतंत्रतामें वृद्धि करवानेसे इनकार कर देंगे यदि उसके कारण उनके ज्यादा गरीब देशवासियों की स्वतन्त्रतापर अन्यायपूर्ण और अस्वाभाविक प्रतिबन्ध लगते हों। हम यह भी अनुभव करते हैं कि हजारों भारतीय खान-मजदूरोंको ट्रान्सवालमें लानेसे स्थिति, जो आज भी अनेक कठिनाइयोंसे भरी हुई है, और भी जटिल हो जायेगी इसलिए हम आशा और विश्वास करते हैं कि श्री मॉर्ले और लॉर्ड मिंटो अपने संरक्षितोंके हितोंकी हानि करके ट्रान्सवालकी सहायता करनेके प्रत्येक प्रस्तावका दृढ़तापूर्वक विरोध करेंगे।
इंडियन ओपिनियन, ३१-३-१९०६
२७०. केपके भारतीय
मार्च १६ के केप 'गवर्नमेंट गजट' में १९०२ के केप प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम संशोधनका विधेयक छपा है। जहाँतक ब्रिटिश भारतीयोंका सम्बन्ध है, यह विधेयक निश्चय ही एक प्रतिगामी कदम है।
१९०२ के कानूनकी संकल्पना गुप्त रूपसे की गई थी और जनताके सामने उसे अशोभनीय जल्दबाजीके साथ लाया गया था — यहाँतक कि, केप विधानसभा के अनेक सदस्योंने सदनसे उसको पास कराने में इतनी उतावलीपर आपत्ति की थी। फिर भी कानून पास कर दिया गया। अब इस विधेयक द्वारा उसे संशोधित करनेका प्रस्ताव किया गया है। ब्रिटिश भारतीयोंने सरकारसे इसके सम्बन्धमें निवेदन किया तो उनको करीब-करीब विश्वास करा दिया गया कि सरकार शीघ्र ही कानूनको उनकी सुझाई दिशामें बदलेगी और शायद सदनसे महान भारतीय भाषाओंको
- ↑ देखिये खण्ड ४, पृष्ठ १०९-१०।