एक मंत्रीके रूपमें उनका काम यह है कि वे अपनी व्यक्तिगत द्वेष-भावनाको अपने मनमें ही रखें। उनके विविध अवसरोंपर दिखाये गये रुखके मुकाबले हम हालमें प्रकाशित 'नेटाल ऐडवर्टाइज़र' के सम्पादकीय लेखका स्वागत करते हैं। हम इस लेखको अन्यत्र छाप रहे हैं। हमारा सहयोगी भारतीयों तथा अन्य रंगदार लोगोंको वह श्रेय देकर उचित ही करता है जिसके वे अधिकारी हैं। उसने नागरिक सेना कानूनकी धारा ८३ की ओर संकेत करते हुए कहा है कि रंगदार टुकड़ीका कोई साधारण सदस्य तबतक बारूदी हथियारसे सज्जित न किया जायेगा जबतक ऐसी टुकड़ियोंको यूरोपीयोंके अलावा दूसरोंके विरुद्ध लड़ने की आज्ञा न दी जाये। इससे अब स्पष्ट हो जाता है कि यदि अभाग्यवश किसी भारतीय दलको सशस्त्र करनेकी आवश्यकता आ ही गई तो अनुभवहीन लोगों के हाथोंमें वे हथियार व्यर्थ साबित होंगे। अधिकारी कुछ समय पूर्व दिये गये हमारे सुझावोंकों[१] क्यों नहीं मान लेते और भारतीयोंका एक स्वयंसेवक दल क्यों नहीं संगठित करते? हमें विश्वास है कि विशेषकर उपनिवेशमें उत्पन्न भारतीय — जो नेटालके उतने ही अपने बच्चे हैं, जितने कि गोरे लोग — अपना फर्ज भली-भाँति अदा करेंगे। उपनिवेशी लोग यह आग्रह क्यों नहीं करते कि उनको अपने जीवटका प्रमाण देनेका मौका अवश्य दिया जाये।
इंडियन ओपिनियन, ३१-३-१९०६
२६८. ट्रान्सवालका संविधान
ट्रान्सवालके मामलोंके सम्बन्धमें जिस जाँच समितिकी बहुत चर्चा थी, उसको नियुक्त करने में ब्रिटेनकी सरकारने जरा भी विलम्ब नहीं किया है। इसके सदस्यों में से दो — सर वेस्ट रिजवे[२] और लॉर्ड सैंडहर्स्टको[३] भारतीय मामलोंका अनुभव है। जाँचका दायरा यह पता लगाने तक सीमित है कि नये संविधानका आधार क्या हो। सरकारके लिए "बिना जानकारीके संविधान बना देना सम्भव नहीं है और यह जानकारी वह आपसे पानेकी आशा करती है।" अन्य बातोंके साथ सदस्योंको इस बातपर भी विचार करना पड़ेगा कि, "किन हितोंमें सामंजस्य और किनमें विभेद है", एवं राजनीतिक तथा सामाजिक स्थितियाँ कैसी हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि जाँचकी सीमामें रंगदारोंके मताधिकारका प्रश्न आता है या नहीं, फिर भी आशा की जानी चाहिए कि आयुक्तोंको इस कठिन और नाजुक सवालपर सलाह देनेका पूरा अधिकार होगा। ट्रान्सवालमें तथा अन्यत्र जो घटनाएँ घट रही हैं उनसे इन स्तंभों में व्यक्त किये गये इन विचारोंकी गुरुता प्रकट होती है कि भारतीय अधिकारोंकी रक्षाके किसी अन्य उपायके अभाव में, भारतीयोंको प्रतिनिधित्व देना आवश्यक जान पड़ता है।
इंडियन ओपिनियन, ३१-३-१९०६