३४१. एक एशियाई नीति
प्रख्यात लेखक 'एल° ई° एन° ' ने 'रैंड डेली मेल' में अपने योग्यतापूर्ण लेख समाप्त कर दिये हैं। ये उन्होंने उपनिवेशोंमें आबाद एशियाइयोंके सम्बन्धमें लिखे हैं। उन्होंने सुझाव दिया है कि इस प्रश्नको हल करनेके निमित्त निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए:
(१) जहाँतक संभव हो, और चाहे कितनी ही हानि उठानी पड़े, स्थायी निवासियोंके रूपमें एशियाई लोगोंको यहाँ न आने दें।
(२) गिरमिटिया मजदूरोंकी जरूरत हो तो उनकी गिरमिटकी अवधि पूरी होनेपर उनकी वापसीपर जोर दें।
(३) जो एशियाई पुराने जमानेकी हालतोंमें इस देशकी आवादीका भाग बन गये हैं उनके साथ न्यायोचित ही नहीं, बल्कि उदार बरताव किया जाये।
(४) अस्थायी दर्शकों या यात्रियोंकी गतिविधिपर कोई परेशान करनेवाली रुकावटें न लगाई जाएँ। लेखक यह कहकर अपनी लेखमाला समाप्त करता है:
जो बातें पेश की गई हैं उनमें से एकको छोड़ कर हम सबसे हृदयसे सहमत हैं। असल में 'एल° ई° एन°' की बताई नीति वही है जिसको भारतीय समाज स्वीकार कर चुका है। किन्तु जो अपवाद हमारे दिमागमें है, वह बहुत ही गम्भीर है। यदि भारतसे गिरमिटिया मजदूर लाने हैं — चाहे रैंडकी खदानोंके लिए, चाहे नेटालकी खेतियोंके लिए, तो वे वापसी की धाराके अन्तर्गत नहीं लाये जाने चाहिए। यदि ऐसे मजदूर न लाये गये होते तो दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंका सवाल शायद कभी उठता ही नहीं। किन्तु यदि गिरमिटिया मजदूरोंका देशमें लाना दक्षिण आफ्रिका के किसी भागकी समृद्धिकी दृष्टिसे पूर्णतः आवश्यक समझा जाये, तो न्यायोचित यही है कि उनको इस प्रकार लानेके बाद, और स्वर्गीय श्री एस्कम्बके शब्दोंमें, उनके जीवन के सर्वोत्तम पाँच वर्ष यहाँ खपानेके बाद, उनको इस देशमें बसने और अपनी पसन्दका कोई खरा धन्धा चुनकर अपनी सेवाओंका पुरस्कार भोगनेकी स्वतंत्रता होनी चाहिए। स्वर्गीय सर विलियम विलसन इंटरको भी, जो अपने अत्यन्त नरम विचारोंके लिए प्रसिद्ध थे और जिनकी ख्याति यह थी कि वे सदा सभी बातोंपर बुद्धिमत्तापूर्वक विचार करते हैं, गिरमिटिया मजदूरोंकी हालतको "खतरनाक रूपसे गुलामीके नजदीक" माननेमें कोई हिचक नहीं हुई थी। इसलिए ऐसे लोगोंका कमसे कम अधिकार यह है कि उनको उस देशमें रहनेकी स्वतंत्रता दी जाये जिसकी सेवा वे इतनी अच्छी तरहसे कर चुकते हैं। इसलिए हमारा खयाल यह है कि यदि लेखक महोदयने मुक्त भारतीयों के प्रवासके