३९१. भारतीय लड़ाईमें जायें या नहीं?
पिछले अंक में हम इस विषयमें विवेचन कर चुके हैं।[१] उसके अन्तिम हिस्से में हमने बतलाया था कि हममें से ज्यादातर लोग प्रायः भयके कारण ही पीछे रहते हैं। यदि लोग ऐसा चाहते हैं कि हम नेटाल, दक्षिण आफ्रिका अथवा ब्रिटिश राज्यके किसी भी हिस्सेमें सुख और इज्जतसे रहें, तो हमें लड़ाईके काममें भाग लेनेके लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें समझानेके लिए हम कुछ ऐसे उदाहरण देना चाहते हैं जिनसे स्पष्ट मालूम हो जायेगा कि डरनेका कोई भी कारण नहीं। क्रीमियाकी लड़ाई बड़ी ही खून-खराबीकी थी, किन्तु आँकड़ोंसे पता चलता है कि जितने मनुष्य अपनी लापरवाही अथवा गलत तरीकेसे रहकर मरे हैं उससे क्रीमियाकी लड़ाईमें भाले या गोलीसे कम मरे हैं। लेडीस्मिथके आक्रमणके समय भी ऐसी गणना की गई थी। उसमें भी मालूम हुआ है कि बोअरोंकी गोलियोंकी अपेक्षा ज्वर और दूसरी बीमारियोंसे औसतन अधिक मनुष्य मरे। ऐसा ही अनुभव प्रत्येक लड़ाईका है।
फिर, जो लड़ाई में अपने शरीरकी अच्छी सम्भाल रखते हैं और नियमसे रहते हैं, वे बहुत ही निरापद रह सकते हैं। और जो लड़ाईमें बहादुरी दिखाने अथवा खूनकी प्यास लेकर ही नहीं जाते, उनको इस समय जो तालीम मिलती है वैसी तालीम दूसरी जगह कभी नहीं मिलती। लड़ाईमें जानेवाले व्यक्तिको कठिन दुःख सहना सीखना पड़ता है। बहुत-से मनुष्योंके साथ हिलमिलकर रहनेकी आदत जबरदस्ती डालनी पड़ती है। सादी खुराक खाकर सुख मानना वह सहज ही सीख जाता है। नियमपूर्वक सोना, बैठना भी उसे अनिवार्य रूपसे सीखना पड़ता है। अपने वरिष्ठ अधिकारीकी आज्ञा बिना विवादके माननेकी आदत पड़ती है। नियमपूर्वक चलना-फिरना भी वहाँ आ जाता है और बहुत ही तंग जगहमें भी स्वास्थ्यके नियमोंका निर्वाह करते हुए रहना जानना पड़ता है। ऐसे उदाहरण देखने में आये हैं कि बहुत लापरवाह और उद्धत व्यक्ति भी युद्धमें जानेके बाद सुधरकर, अपने मन और शरीरपर संयम रखना सीख कर, वापस आये हैं।
भारतीय कौमके लिए तो लड़ाईमें जाना सहज बात होनी चाहिए, क्योंकि हम चाहे मुसलमान हों चाहे हिन्दू, हम ईश्वरपर बहुत आस्था रखते हैं। हमें अपने कर्त्तव्यका भान ज्यादा है इसलिए लड़ाई में जानेकी बात सहज ही हमारी समझमें आनी चाहिए। हमारे देशमें अकाल और प्लेगसे लाखों मनुष्य मरते हैं, उससे हम लोग नहीं डरते। इतना ही नहीं, जब हमें बताया जाता है कि उसके विषयमें हमारा कर्त्तव्य क्या है, तब भी हम अत्यन्त लापरवाही करते हैं, घर-वार गन्दे रखते हैं। और पैसोंसे चिपटे पड़े रहते हैं। ऐसी अधम जिन्दगी बिताते हुए तिल-तिलकर मरना पसन्द करते हैं। ऐसे जो हम हैं, उन्हें यदि लड़ाईमें जाकर कदाचित् मरना पड़े तो उससे डरना क्यों चाहिए? नेटालमें गोरे जो करते हैं उसे देखकर हमें बहुत सबक लेना है। शायद ही उनमें कोई ऐसा कुटुम्ब हो जिसमें से काफिर-विद्रोहमें एक-न-एक आदमी न गया हो। उनसे सीखकर हमें अपने मनमें जोश भरनेकी पूरी आवश्यकता है। यह एक ऐसा अवसर आया है जब प्रमुख गोरे चाहते हैं कि हम उपर्युक्त कदम उठायें। यदि हम इसमें चूक जायेंगे तो पीछे पछताना होगा। इसलिए हम सारे भारतीय नेताओंको सलाह देते हैं कि वे इस विषय में अपने कर्तव्यका भली भाँति पालन करें।
इंडियन ओपिनियन, ३०-६-१९०६
- ↑ देखिए, "भारतीय स्वयंसेवक", पृष्ठ ३७२-३।