पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 6.pdf/१२

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दे दिया गया और नये शासनने उस घिनौने अध्यादेशको फिर नियम बनाकर लागू कर दिया। मार्च २२ को, एक दिनमें ही, विधेयक अपनी सारी मंजिलें पार करके कानून बन गया, और मई ९ को उसपर साम्राज्य सरकारकी स्वीकृतिकी मुहर भी लग गई। यह नितान्त अप्रत्याशित भी नहीं था; क्योंकि दक्षिण आफ्रिका पहुँचते ही गांधीजीने भारतीयोंको परिस्थितिकी वास्तविकताओंसे परिचित कराकर सितम्बर १९०६ के प्रसिद्ध चौथे प्रस्तावमें किये गये उनके संकल्पकी याद दिलाई और उन्हें इस बातपर दृढ़ करना प्रारम्भ कर दिया कि यदि वह अपमानजनक अध्यादेश पास हो जाये तो वे उसके आगे नत नहीं होंगे।

गांधीजीने इस बीच अधिकतर आगामी संघर्षके विषयमें ही कहा और लिखा। उन्होंने अपनी सारी बौद्धिक और नैतिक शक्तियोंका उपयोग भारतीयोंमें किसी भी परिस्थितिका मुकाबला करनेकी तत्परता और दृढ़ता जगानेमें किया, जिसमें जेल जानेकी तैयारी भी आ जाती है। उनका मानस उन दिनों किस तरह काम कर रहा था सो इंग्लैंडमें चलनेवाले मताधिकार आन्दोलनके सम्बन्ध में उनके लेखसे स्पष्ट होता है। इंग्लैंडमें यह आन्दोलन अपनी आँखों देखनेका उन्हें अवसर मिला था ( देखिए उनका लेख: "औरतें मर्द और मर्द औरतें!", २३-२-१९०७)।

इसी कालमें उन्होंने 'इंडियन ओपिनियन' के गुजराती स्तम्भोंमें सॉल्टरकृत 'एथिकल रिलीजन' के कतिपय अध्यायोंको संक्षिप्त करके प्रस्तुत किया। उसका तात्पर्य यह था कि समस्त नैतिक आचार स्वयंस्फूर्त और निष्काम हैं। नैतिक नियम अपरिवर्तनीय और समस्त लौकिक नियमोंसे परे हैं; तथा नैतिक विचार तबतक व्यर्थ है जबतक उसका अनुरूप आचरणमें विनियोग नहीं होता। गांधीजी शौर्यपूर्ण आचरणके जो प्राचीन और आधुनिक उदाहरण दिया करते थे उन्हींके समान इन अध्यायोंने भी उस संघर्षके नैतिक आधारपर जोर देनेका काम किया जिसे वे दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंकी मान-रक्षाके लिए छेड़नेवाले थे। इस संघर्षका सूत्रपात उन्होंने 'इंडियन ओपिनियन' को लिखे गये अपने एक ऐतिहासिक पत्र में ("श्री गांधीकी प्रतिज्ञा", ३०-४-१९०७) सबसे पहले अनाक्रामक प्रतिरोधकी प्रतिज्ञा लेकर किया।

भारतीय दृष्टिकोणको स्पष्ट करने और विरोधी लांछनोंका प्रतिकार करनेके लिए गांधीजीने इस समय समाचारपत्रोंका पहलेसे भी अधिक उपयोग किया। वे संघर्षकी तैयारीमें व्यस्त रहकर भी समझौतेके लिए तत्पर रहे। 'स्टार' (मई ३०, १९०७) एक पत्रके द्वारा उन्होंने "तर्कसम्मत समझौता" करनेकी हिमायत की है और उस अन्तिम क्षणमें भी उपनिवेशियोंसे सद्भावकी अपील की है।

अपने बड़े भाई लक्ष्मीदास गांधीको (अप्रैल २० के बाद) लिखे उनके एक पत्रसे प्रकट होता है कि तबतक गांधीजी व्यक्तिगत निष्ठा और दर्शनमें कहाँ जा पहुँचे थे। उन्होंने उसमें कहा है कि अब उनके कुटुम्बमें "समस्त चेतन प्राणियोंका समावेश है।" डर्बन इस्लाम-संघ में दिये गये भाषण (जनवरी ३, १९०७) के ये शब्द इस खण्डकी आधार-श्रुति हैं: "मैं खुदाको हमेशा अपने पास ही समझता हूँ। वह मुझसे दूर नहीं है। मेरी प्रार्थना है कि आप सब भी ऐसा ही मानें। खुदाको अपने पास समझें, और हमेशा सत्यका आचरण करनेवाले बनें।"