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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लानेका प्रयत्न कर रहा है। दूसरे शब्दोंमें, भारतीय समाज शान्ति-रक्षा अध्यादेशको भंग करनेके अपराधमें रत है; और इस प्रकारके प्रयत्नको रोकने के लिए ही यह अध्यादेश पास किया गया है। इसलिए यह एक दण्डका विधान है। अक्सर सुनते हैं कि जब किसी समुदायके कुछ सदस्य गम्भीर राजनीतिक अपराध करते हैं अथवा देशके सामान्य कानूनको बुरी तरह भंग करते हैं, तब समूचे समुदायपर दण्डात्मक कानून लागू किये जाते हैं। परन्तु यहाँ नागरिकों की स्वाधीनतापर रोक लगानेवाले उस कानूनके विरुद्ध, जो गलतीसे ब्रिटिश भारतीयोंपर लागू किया जा रहा है, अपराधके लिए समूचे समाजको अपमानजनक ढंगसे दण्डित किया जा रहा है; और सो भी तब जब सम्बद्ध समाजने इस अपराधके आरोपका जोरोंसे खण्डन किया है।

भारतीय समाजकी विनम्र सम्मतिमें ऐसा है यह अध्यादेश, जिसके बारेमें हम लॉर्ड महोदयके समक्ष उपस्थित हो रहे हैं। तीन ऐसी बातें हैं, जिनके बारेमें कहा जाता है कि वे ब्रिटिश भारतीयों को राहत देनेके लिए अध्यादेशमें शामिल की गई हैं। पहली बात है, ३ पौंडी शुल्ककी माफी। परन्तु हम दिखला चुके हैं कि माफीका सवाल बिलकुल नहीं है, क्योंकि वे सब लोग, जो इस समय ट्रान्सवालमें हैं, ३ पौंडी शुल्क दे चुके हैं। दूसरी बात है, वह अधिकार, जो अध्यादेश सरकारको अस्थायी अनुमतिपत्र जारी करनेके लिए देता है। परन्तु यह भी कोई राहत नहीं है, क्योंकि वह अनावश्यक है। ऐसा अधिकार तो सदैव रहा ही है और सरकार अपनी मर्जीके अनुसार उसका प्रयोग करती रही है। आज भी ऐसे ब्रिटिश भारतीय मौजूद हैं जिनके पास अस्थायी अनुमतिपत्र हैं।

फिर मद्य अध्यादेशके प्रभावसे अस्थायी अनुमतिपत्र प्राप्त लोगोंको राहत दिलाने की बात है। यह राहत ब्रिटिश भारतीयोंने कभी नहीं माँगी थी। और जहाँतक यह उनपर लागू होती है, इसका अर्थ है उनका अकारण अपमान।

हाँ, एक बात है, जिसे अध्यादेश जरूर दुरुस्त करता है। और वह है, स्वर्गीय अबूबकर आमदके वारिसोंको वह भूमि देना, जो उनके नामसे उनके पास १८८५ से पहले थी। इसका स्वरूप व्यक्तिगत है। और मुझे सन्देह नहीं कि जो भूमि अधिकारसे उनकी है, उसकी अगर उन वारिसोंको ऐसी कीमत चुकानी पड़े, जिससे ट्रान्सवालके सम्पूर्ण भारतीय समाजका अपमान होता हो, तो मुझे विश्वास है कि स्वयं वे वारिस भी चुकानेको तैयार नहीं होंगे। और समाज निश्चय ही ऐसी राहतके लिए कभी कृतज्ञताका अनुभव नहीं करेगा। यह बहुत ही आश्चर्य की बात होगी, यदि बार-बार किये गये वादों और प्रतिज्ञाओंके बावजूद इस प्रकारके अध्यादेशका लॉर्ड महोदय समर्थन करें। मैं श्री चेम्बरलेन, लॉर्ड मिलनर और श्री लिटिलटनके खरीतोंसे उद्धरण देकर यह दिखानेकी वृष्टता करूंगा कि वे युद्धके बाद क्या करनेका इरादा रखते थे....।[१]

यह सर्वविदित है कि युद्धसे पहले ब्रिटिश सरकारने इस बात के लिए प्रत्येक सम्भव उपाय किया था कि १८८५ का कानून ३ रद कर दिया जाये। आज स्थिति बदल गई है। परन्तु हमने आशा को थी कि परिवर्तन अच्छेके लिए होगा, क्योंकि हमने सोचा था कि हमारा वास्ता अब किसी विदेशी सरकारसे नहीं बल्कि स्वयं अपनी सरकारसे पड़ेगा। दुर्भाग्यसे हम आज उस देशमें अजनवी बन गये हैं, जिसे हमारा अपना देश कहा जा सकता है। पूर्वग्रहका समाधान करने के लिए हमने सदैव प्रयत्न किये हैं। और इस दृष्टिसे हमने सुझाव भी दिये

  1. वे अंश जो कि अब उपलब्ध नहीं हैं, मालूम पड़ता है, यहाँपर जोड़े गये थे।