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१५८. पत्र:'टाइम्स' को[१]

होटल सेसिल
लन्दन
नवम्बर १२, १९०६

सम्पादक
'टाइम्स'
प्रिंटिंग हाउस स्क्वेयर, ई० सी०

महोदय,

१० तारीख के 'टाइम्स' में उपनिवेशोंके ब्रिटिश भारतीयोंके प्रश्नपर अग्रलेख लिखकर आपने उसे संकुचित स्थानीय धरातलसे निकालकर साम्राज्यीय स्तरपर उठा दिया है। परन्तु, फिलहाल यदि आप हमें उस बड़े प्रश्नको छुए बिना, जिसपर आपने अपने अग्रलेख में विचार किया हैं, एशियाई अधिनियम संशोधन अध्यादेशपर कुछ कहने की इजाजत दें तो हम आभार मानेंगे।

आप कहते हैं:

यह सम्भव या वांछनीय नहीं ज्ञात होता कि जिस कानूनको, लगता हो कि ऐसे लोगोंके मतका आम समर्थन प्राप्त है, जिन्हें शीघ्र ही अपने कानून आप बनाने का अधिकार मिलनेवाला है, उसे ताजकी स्वीकृति प्राप्त न हो।

हम निम्नलिखित कारणोंसे आपके विचारसे असहमति प्रकट करनेकी धृष्टता करते हैं:

(१) आप यह स्वीकार करते हैं कि अध्यादेश द्वारा उठाये गये विवाद विशेषको दृष्टिमें रखते हुए "अभी कोई मत निश्चित करने लायक प्रमाण मुश्किलसे" उपलब्ध हैं।

(२) अध्यादेश ट्रान्सवालमें एशियाई आव्रजन के विशद प्रश्नको प्रभावित नहीं करता, परन्तु यह उपनिवेशमें बसे ब्रिटिश भारतीयोंके दर्जेको बहुत हानिप्रद ढंगसे परिवर्तित कर देता है।

(३) यह "सर्वथा अस्थायी कानून" नहीं है; क्योंकि, यद्यपि यह सत्य है कि श्री डंकनने कहा था कि यह भावी विधि-निर्माणके मार्ग में रोड़ा बने बिना पेश किया जा रहा है, परन्तु उसमें स्वयं अध्यादेशके "एक अस्थायी कानून" होनेकी कोई बात नहीं थी। उसका स्वरूप ही ऐसा है कि वह अस्थायी नहीं हो सकता, क्योंकि उसका मकसद, जैसा कि कहा गया है, हमेशा के लिए ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंका पंजीयन सम्पन्न करना और उन्हें उन पासोंको अपने साथ रखनेके लिए बाध्य करना है, जिन्हें कि पंजीयन प्रमाणपत्रका मधुर नाम दिया गया है।

(४) पूर्वस्थितिको सुरक्षित रखने और एशियाई निवासियोंको "कुछ स्पष्ट शिकायतों" से मुक्ति देनेके बजाय यह उनके दर्जेको कम करता है और एक भी शिकायत दूर नहीं करता।

(५) आम गोरे समाज के पूर्वग्रहको हम स्वीकार करते हैं, परन्तु इसे जिस तरीके से प्रयोगमें लाया गया है वह तो सरकारकी खासी अपनी करतूत है और निश्चय ही ट्रान्सवालका

  1. यह पत्र टाइम्समें प्रकाशित नहीं हुआ।