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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मेरे और मेरे साथियोंके सामने आज एक ऐसा कार्य आया है जो नितान्त सुखकर है। अर्थात्, आप सबको, जिन्होंने अपनी उपस्थितिसे हमें सम्मानित किया है, तथा उन महानुभावोंको भी, जो आज सुबह हमारे साथ शामिल नहीं हो सके, धन्यवाद देना। जब श्री अली और मैं अपना उद्देश्य समाप्त कर चुके तब हमने सोचा कि ट्रान्सवालके १३,००० ब्रिटिश भारतीयोंका प्रतिनिधित्व करते हुए हम जो कमसे कम कर सकते हैं वह यह कि अपने आभार-प्रदर्शनके लिए इस तरहका ठोस तरीका अपनायें। अपने इंग्लैंडके मुकाममें हमें जो सहायता उपलब्ध हुई वह अत्यन्त उत्साहवर्धक रही है। इस शक्तिशाली साम्राज्यमें अपनेको नागरिक अधिकारोंसे वंचित किये जानेके विरुद्ध हमने जो संघर्ष छेड़ा है उसमें प्रारम्भसे ही हमें सभी दलोंसे सहायता मिली है। हमने सभी दलोंसे अपील की है और सभी दलोंने हमारी ओर सदा ही सहायताका हाथ बढ़ाया है। इसके लिए हम जितनी कृतज्ञता प्रकट करें, थोड़ी है और मेरी समझमें यह उचित ही होगा कि यहाँपर खास तौरसे स्वर्गीय सर विलियम विल्सन इंटरका उल्लेख करूँ। सर विलियम विल्सन हंटरको १८८३ में एक परिपत्र मिला, जो उन्हें दक्षिण आफ्रिकासे भेजा गया था। और मेरे विचारसे वे सर्वप्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने इस प्रश्नका राष्ट्रीय महत्त्व समझा। वे तबसे लेकर मृत्यु पर्यन्त दक्षिण आफ्रिका भारतीयोंके पक्षके लिए कुछ-न-कुछ करनेमें सतत व्यस्त रहे। 'टाइम्स' तथा अन्य समाचारपत्रोंके स्तम्भोंमें वे सदैव हमारे पक्षकी वकालत करते रहे। और मुझे लेडी इंटरसे एक पत्र मिला था जिसमें उन्होंने लिखा था कि सर विलियम अपने अन्तिम समयमें भी इस मामलेसे सम्बन्धित एक लम्बा लेख तैयार कर रहे थे। १९०६ में, जब मैं कलकत्ते में था, श्री सॉन्डर्स भी हमारे पक्षकी सहायताके लिए आगे आये। इसी तरह 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने भी किया। इस पत्रने सदैव दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंके पक्षकी वकालत की। हालकी बात लें तो हमें पूर्व भारत संघसे सहयोग प्राप्त हुआ है; और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी ब्रिटिश समितिने हमारी मूल्यवान सहायता की है। मेरे और श्री अलीके लिए यह दुःखकी बात है कि हमें यह निमन्त्रणपत्र उस समय भेजना पड़ा जब भारतके 'पितामह' श्री दादाभाई नौरोजी कांग्रेसके आगामी अधिवेशनके लिए इस देशको छोड़ रहे हैं। हम उनके प्रति भी अपना आभार प्रकट करते हैं। जैसा कि मैंने कहा है, मैंने ब्रिटिश लोकसभा में सभी दलोंसे अपील की थी और सभीने हमारी सहायता की। खासकर मुझे श्री स्कॉटके नामका उल्लेख करना नहीं भूलना चाहिए, जिन्होंने हमारी शिकायतोंके सम्बन्ध में अत्यन्त सद्भावना और उत्साह के साथ हमें सहायता पहुँचाई। अब मैं सर मंचरजी भावनगरीके नामपर आता हूँ। वे गत १२ वर्षोंसे प्रबल उत्साह और दृढ़ताके साथ दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंके पक्षकी वकालत कर रहे हैं। यों तो सभीने सहायता की है, लेकिन सर मंचरजीने इसे अपना ही पक्ष बना लिया है। उन्होंने इसके लिए इस तरह काम किया, मानो उन्हें उन्हीं दृढ़ विश्वासों तथा भावनाओंसे प्रेरणा मिली हो जिनसे हमें मिली है। उक्त समस्याओंके राष्ट्रीय महत्त्वको जिस प्रकार सर मंचरजीने अनुभव किया है उस प्रकार किसी औरने नहीं। लोकसभामें, सभासे बाहर और अपने पत्रोंमें उन्होंने सदैव हमारी सहायता की है और हमें परामर्श दिया है कि किस प्रकार हमें काम करना चाहिए। हम दक्षिण आफ्रिका-वासियोंके लिए उन्होंने जो कुछ किया है उसके लिए हम शब्दोंमें अपना आभार प्रकट नहीं कर सकते। यह अध्यादेश पास हो या न हो, हमारे मार्गमें कठिनाइयाँ तो अभी शायद