पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 6.pdf/२९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६१
भाषण : लन्दनके विदाई समारोह में

प्रारम्भ ही हुई हैं। इसलिए हम आशा करते हैं कि यहाँके हमारे मित्र जो सहायता अबतक देते रहे हैं उसे जारी रखेंगे, क्योंकि अध्यादेशके पास न होने पर भी—जैसा होनेकी आशा है—आम सवालके बारेमें अभी बहुत कुछ करना शेष है। फिर फ्रीडडॉप अध्यादेश है। इनके अलावा नेटाल नगरनिगम विधेयक भी है। जो कुछ ट्रान्सवालमें होगा, दूसरे उपनिवेश भी वैसा ही करेंगे, ऐसी सम्भावना है। हमारी नीति अत्यधिक नरमीकी रही है। हमने सदैव यह दावा किया है कि हम दक्षिण आफ्रिकामें अपने विरोधियों (यदि इस शब्दका प्रयोग किया जा सके तो) की भावनाओंको समझने में समर्थ हुए हैं। और यद्यपि हमने पूरे प्रश्नपर उनके दृष्टिकोणसे विचार किया है और उन लोगोंको, जिन्हें हमारे प्रति पूर्वग्रह है, यह विश्वास दिलानेका प्रयत्न किया है कि हमारी इच्छा सीमित है, फिर भी हम आपसे माँग करते हैं कि आप हमारे संघर्ष में हमें सहायता दें। इसी कारणसे दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंने हमें अधिकार दिया है कि हम ऐसी समितिका संघटन तथा उद्घाटन करें जो हमारे हितोंकी सदैव रक्षा करती रहे। हमारे सहायकोंने जो कार्य यहाँ इतनी अच्छी तरह और योग्यताके साथ किया है उसे यदि इस समिति जैसे संघटनके द्वारा संयोजित न किया जाये और जारी न रखा जाये तो वह बिलकुल नष्ट हो जायेगा।

चूँकि आप महानुभावोंमें से बहुतों के पास परिपत्रकी[१] प्रतियाँ पहुँच चुकी हैं, इसलिए मैं संक्षेपसे समितिके उद्देश्योंके बारेमें कहूँगा। आप देखेंगे कि यह भी केवल कामचलाऊ मसविदा है। ये वे विचार हैं जो हमें सूझे हैं। आशा है, आप उनपर विचार करेंगे और परामर्श देकर हमारी सहायता करेंगे। मसविदेमें जिनके नाम छपे हैं उन्होंने सानुग्रह समितिका सदस्य बनना स्वीकार कर लिया है। अब मेरे लिए केवल यह शेष बचा है कि मैं आपसे कृपापूर्वक इस संविधानके मसविदेपर विचार करने, और यदि आप यह सोचते हैं कि जो कदम हमने उठाया है वह आपको स्वीकार्य है, तो औपचारिक रूपसे इसका उद्घाटन करनेका निवेदन करूँ। ट्रान्सवालमें हमें जिस स्थितिमें रखा गया है उसकी गम्भीरताके बारेमें में इससे बढ़कर उदाहरण नहीं दे सकता कि मैं उन नौजवान भारतीयोंकी ओर संकेत करूँ जो आज यहाँ हैं। वे आपके अतिथि होनेकी अपेक्षा मेजवान ही अधिक हैं। वे हैं दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय छात्र। दूसरे शब्दोंमें खुद भारतकी अपेक्षा दक्षिण आफ्रिका उनका घर अधिक है। वे यहाँ पढ़ रहे हैं, लेकिन मुझे सन्देह नहीं कि वे अत्यन्त चिन्ता और आशंकाके साथ दक्षिण आफ्रिका वापस जानेकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी वही अवस्था झेलनी पड़ेगी जो ट्रान्सवालके तेरह हजार ब्रिटिश भारतीय ही नहीं, बल्कि वास्तवमें सारे दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीय झेल रहे हैं। यहाँ, इंग्लैंडमें वे बैरिस्टर और डॉक्टर बनेंगे, किन्तु वहाँ, दक्षिण आफ्रिकामें, हो सकता है, वे ट्रान्सवालकी सीमाको पार भी नहीं कर सकें।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २९-१२-१९०६
  1. देखिए "एक परिपत्र", पृष्ठ २४८-४९।