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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिए श्रेष्ठ भोजन है। ऐसे मनुष्यको यदि कोई भलाईका अवसर दे तो वह भलाईका अवसर देनेवालेका आभारी होगा—वैसे ही, जैसे कोई भूखा अपने अन्नदाताको दुआ देता है।

ऐसे नीति-मार्गकी बातें करनेसे अपने-आप ही मनुष्यता प्राप्त हो जाये, ऐसा यह मार्ग नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि हम थोड़े अधिक मेहनती बनें, अधिक शिक्षित हों, अधिक स्वच्छ रहें आदि। यह सब तो उसमें आ ही जाता है। परन्तु यह तो नीतिके क्षेत्रके किनारे तक पहुँचना मात्र हुआ। इसके अलावा मनुष्यको इस मार्गमें बहुत कुछ करना बाकी है। और यह सब स्वाभाविक तरीकेसे अपना कर्त्तव्य समझकर करना है—इसलिए नहीं कि ऐसा करनेसे उसे कोई लाभ होगा।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ५-१-१९०७
 

३०७. पत्र : 'आउटलुक' को

[जोहानिसबर्ग
जनवरी १२, १९०७ के पूर्व]

[सेवा में
सम्पादक
'आउटलुक'
महोदय,]

आपने अपने २४ नवम्बरके अंक में "ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय" शीर्षकसे जो विस्तृत अग्रलेख लिखा है उसमें इस प्रश्नका साम्राज्यीय महत्त्व स्वीकार किया है। क्या इसपर मैं आपको बधाई दे सकता हूँ? साथ ही क्या मैं आपको यह भी बता सकता हूँ कि यूरोपीयोंकी भारतीय-विरोधी नीतिका औचित्य सिद्ध करने में आपने, बेशक अनजाने, ब्रिटिश भारतीयोंके साथ दुहरा अन्याय किया है?

प्रथम तो मेरी नम्र रायमें आपकी निगाह केन्द्रीय प्रश्नपर पड़ी ही नहीं। आपका खयाल यह मालूम होता है कि एक ओर भारतीय अपने देशवासियोंके अमर्यादित प्रवेशके लिए खुला द्वार माँगते हैं और दूसरी ओर गोरे उपनिवेशी आत्म-रक्षाकी भावनासे यह माँग करते हैं कि दरवाजा पूरी तरह बन्द कर दिया जाये। परन्तु बात ऐसी नहीं है। भारतीय उन साधारण नागरिक अधिकारोंको मांगते हैं, जिनका उपभोग किसी भी सभ्य राज्यमें अपराध वृत्तिवालोंके सिवा अन्य सब मानव प्राणी करते हैं। वे आस्ट्रेलिया द्वारा अपनाये गये ढंगपर भी अपने भाइयोंके और अधिक प्रवासपर प्रतिबन्ध लगानेका सिद्धान्त स्वीकार करते हैं; परन्तु उनका कहना है, श्री चेम्बरलेनकी[१] भी यही राय है कि केवल ब्रिटिश भारतीय होनेके कारण उनपर पाबन्दी न लगाई जाये। अगर साम्राज्यवादका कोई अर्थ है तो उपर्युक्त स्थितिपर कोई ऐतराज कैसे कर सकता है? मुझे कोई सन्देह नहीं, आप यह स्वीकार करेंगे

  1. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३९६-३९८।