पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 6.pdf/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९१
नीतिधर्म अथवा धर्मनीति—१

हमें देते हैं उतना वे स्वयं भी करते हैं। हम पाठकोंसे इतनी ही याचना करते हैं कि यदि कोई नीति-वचन उन्हें सच्चा लगे तो वे उसके अनुसार आचरण करनेका प्रयत्न करें। यदि ऐसा हुआ तो हम अपने प्रयासको सफल मानेंगे।

प्रकरण १

जिससे हम अच्छे विचारोंमें प्रवृत्त हो सकते हैं, वह हमारी नैतिकताका परिणाम माना जायेगा। दुनियाके सामान्य शास्त्र हमें बतलाते हैं कि दुनिया कैसी है। नीति-मार्ग यह बतलाता है कि दुनिया कैसी होनी चाहिए। इस मार्गसे यह जाना जा सकता है कि मनुष्यको किस प्रकार आचरण करना चाहिए। मनुष्यके मनमें हमेशा दो खिड़कियाँ रही हैं। एकसे वह देख सकता है कि स्वयं कैसा है, और दूसरीसे, उसे कैसा होना चाहिए इसकी कल्पना कर सकता है। देह, दिमाग और मन तीनोंकी अलग-अलग जाँच करना हमारा काम अवश्य है, परन्तु यदि इतने तक ही रह जायें तो ऐसा ज्ञान प्राप्त करके भी हम उसका कोई लाभ नहीं उठा सकते। अन्याय, दुष्टता, अभिमान आदिके क्या परिणाम होते हैं और जहाँ ये तीनों एक साथ हों वहाँ कैसी खराबी होती है यह जानना भी जरूरी है। और, केवल जान लेना ही बस नहीं, जानने के बाद वैसा आचरण भी करना है। नीतिका विचार वास्तुकारके नक्शेकी तरह है। नकशा तो केवल यह बतलाता है कि घर कैसा बनाया जाये। पर जैसे चुनाई और बाँधनेका कार्य न किया जाये तो नकशा बेकार ही होगा, उसी तरह नीतिके अनुसार आचरण न किया जाये तो नैतिकताका विचार भी बेकार हो जायेगा। बहुत लोग नीतिके वचन याद करते हैं, उसके सम्बन्धमें भाषण करते हैं, परन्तु तदनुसार आचरण नहीं करते और करना चाहते भी नहीं। फिर, कुछ यही मानते हैं कि नैतिकताके विचारों पर अमल करना इस दुनियाके लिए नहीं, मरनेके बाद दूसरी दुनियाके लिए है। पर ये विचार सराहनीय नहीं माने जायेंगे। एक विचारवान व्यक्तिने कहा है कि यदि 'पूर्ण' बनना है तो हमें आजसे ही हर तरहके कष्ट उठाकर नीतिके अनुसार आचरण करना चाहिए। इस प्रकारके विचारोंसे हमें विदकना नहीं है, बल्कि अपनी जिम्मेदारी समझकर तदनुसार आचरण करने में प्रसन्न होना चाहिए। महान योद्धा पेम्ब्राक ऑबरकॉकके युद्धके बाद अर्ल डर्बीसे मिला तब डर्बीने उसे खबर दी कि युद्ध जीता जा चुका है। इस खबरपर पेम्बाक बोल उठा : "आपने मेरे साथ शिष्टताका व्यवहार नहीं किया। जिसका मुझे सम्मान मिलता उसे आपने मेरे हाथसे छीन लिया है। मुझे युद्धमें बुलाया था तो मेरे आनेसे पहले युद्ध नहीं करना था।" जब नीतिमार्ग में इस तरह जिम्मेदारी उठानेकी हौंस मनुष्यको होगी, तभी वह उस मार्गपर चल सकेगा।

खुदा या ईश्वर सर्वशक्तिमान है, सम्पूर्ण है। उसकी दया, उसकी अच्छाई तथा उसके न्यायका पार नहीं है। यदि यह सत्य है तो उसके बन्दे कहलानेवाले हम लोग नीति-मार्गका परित्याग कर ही कैसे सकते हैं? नीतिके अनुसार आचरण करनेवाला यदि असफल होता दिखाई दे तो इसमें कोई नीतिका दोष नहीं है। वह दोष नीति भंग करनेवालेको स्वयं अपने ऊपर लेना होगा।

नीति-मार्ग में नीतिका पालन करते हुए उसका फल प्राप्त करनेकी बात तो उठती ही नहीं। मनुष्य भलाई करता है तो कुछ प्रशंसा प्राप्त करनेके लिए नहीं। वह भलाई किये बिना रह ही नहीं सकता। सुन्दर भोजन और भलाईकी यदि तुलना की जाये, तो भलाई उसके