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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं है। जो मुकदमे अभी-अभी हुए हैं उनसे पता चलता है कि बहुत से व्यक्तियोंको प्रविष्ट होनेसे रोका जाता है। और यह सभी लोग जानते हैं कि भारतीय व्यापारके साथ एशियाई अध्यादेश का जरा भी सम्बन्ध नहीं था।

फिर भी यह ध्यान में रखने जैसी बात है कि भारतीय लोग बिना अनुमतिपत्रके अथवा झूठे अनुमतिपत्रोंके द्वारा प्रविष्ट होनेका जितना प्रयत्न करते हैं उतनी ही सारे समाजको क्षति पहुँचती है। अतः जो लोग ऐसे काम करते हों उन्हें रुक जाना चाहिए।

फिर गोरोंमें जो इस प्रकार गलतफहमी चल रही है उसे रोकनेके लिए भारतीय नेताओंको भरसक प्रयत्न करना चाहिए। इसका ताजा उदाहरण श्री दाउद मुहम्मदके घरकी घटना है। उसके सम्बन्धमें हम अन्य स्थानपर लिख चुके हैं।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १२-१-१९०७
 

३०९. फ्रीडडॉर्प अध्यादेश

हमारी जोहानिसबर्गकी चिट्ठी देखनेपर विदित होगा कि फीडडॉर्प अध्यादेश पास हो गया है।[१] इसलिए भय है कि फीडडॉ के भारतीयोंको वहाँसे निकलना पड़ेगा। इस कानूनके[२] पास हो जाने से भारतीय समाजको समझ लेना है कि अभी बहुत काम करना बाकी है। लड़ाई बहुत करनी है। एशियाई अध्यादेश, तभी रद हुआ जब विलायतमें खूब चर्चा हुई। जिस तारसे यह खबर आई कि फीडडॉ अध्यादेश स्वीकृत हुआ है, उसी तारमें यह भी खबर है कि नेटालके नगरपालिका विधेयकके सम्बन्धमें हमारी लन्दनकी समिति कोशिश कर रही है। उसका परिणाम अभी देखना है। परिणाम चाहे जो हो, इसपर से इतना तो सिद्ध होता है कि हमने विलायतमें जो समिति स्थापित की है उसको बहुत बल देना है। उसे तत्काल बन्द करने की बात ही नहीं रहती। श्री रिचके पहले पत्रका सार हम प्रकाशित कर चुके हैं। उसकी ओर सब पाठकोंका ध्यान खींचते हैं। यदि समितिका कार्य इस प्रकार चलता रहा तो लाभ होने की सम्भावना यथेष्ट है।

यह अध्यादेश यह भी बताता है कि हमारे अपने बलके समान और कोई बल होने वाला नहीं है। अर्थात् हम लोगोंको दक्षिण आफ्रिकामें जो कुछ करना आवश्यक है, वह स्वयं नहीं करेंगे, तबतक यह भरोसा रखना व्यर्थ है कि हमें पूरी सफलता मिलेगी। दक्षिण आफ्रिका हमारा क्या कर्त्तव्य है, इसपर फिर विचार करेंगे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपियनिन, १२-१-१९०७
  1. "जोहानिसबर्ग की चिट्ठी" (पृष्ठ २९५-९६) में फ्रीडडॉ अध्यादेशका उल्लेख नहीं है।
  2. देखिए "नेटाल परवाना कानून", पृष्ठ ३१०-१३।