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३३१. पत्र : छगनलाल गांधीको

जोहानिसबर्ग,
जनवरी ३१, १९०७

प्रिय छगनलाल,

तुम्हारा पत्र मिला और सूची भी। श्री आदमजी मियाँखाँकी[१] बिदाईके अवसरपर हमें उनका चित्र परिशिष्टके रूपमें प्रकाशित करना है और उनके जीवनका संक्षिप्त परिचय भी देना है। परिचय मैं यहाँसे भेजूँगा। मैंने श्री आदमजीसे उनका चित्र माँगा है। वे एक चित्र तुम्हारे पास वहाँ भेज देंगे। जैसे हो वह पहुँचे, तुम्हें उसका ब्लाक बनवा लेना चाहिए ताकि जब आवश्यकता पड़े, हम उसे काममें ला सकें और उसके लिए हड़बड़ी न करनी पड़े।

तुम मेरे पास भेंटकी प्रतियाँ और परिवर्तनमें जानेवाली प्रतियोंकी कुल संख्या दो शीर्षकोंमें बाँटकर भेज दो। एक शीर्षक में भेंटकी प्रतियाँ हों, दूसरेमें परिवर्तनकी : नेटाल और नेटालके बाहरकी। जनवरीकी आमदनी ऐसी खराब नहीं है। इस महीने की खर्चको मदमें तुमने तनख्वाहें बिलकुल ही नहीं दिखलाई। क्या तलपट बनना शुरू हो गया है?

पहेलियाँ कौन बनायेगा? पारितोषिकोंकी बात उसके बाद ही सोच सकते हैं। मेरी अपनी राय तो यह है कि हम अभी इतने तैयार नहीं हैं कि इस दिशामें फैलाव करें। डॉक्टर नानजीने कल्याणदासके लिए क्या नुस्खा दिया है और उसके हाथोंके घावोंका उन्होंने क्या कारण बताया है?

तुम्हारे जोहानिसबर्गके विज्ञापन दाताओंकी सूची मुझे ठीक समयपर मिल गई है। उन सब लोगोंने रकमें देना मंजूर कर लिया है। छोटाभाई दे चुके हैं। तुम्हें उनका जमापुर्जा मिल गया होगा। पता लगाकर मुझे सूचित करो कि मिला या नहीं। दूसरे भी दे देंगे। इसलिए तुम विज्ञापनोंको जारी रख सकते हो।

तुम श्रीमती जेमिसनसे ३ पौंड वसूल कर सको तो बहुत अच्छा होगा। मुझे लगता है कि ये ३ पौंड मुझे श्री व्यासको वापस कर देने चाहिए। आगेसे जिन लोगोंपर तुम्हें काफी भरोसा न हो उन्हें परिचयकी चिट्ठी न दिया करो।

शक्तिसे अधिक काम करके थको मत। मुतुका क्या हुआ? मुझे अबतक न तो 'पारसी क्रॉनिकल' मिला, न 'पत्रिका' ही मिली। जिन ग्राहकोंके सामने तुमने यह x चिह्न लगा दिया है उनके नाम तबतक कायम रखो जबतक मैं और न लिखूँ। अन्य नाम काटे जा सकते हैं। किन्तु मैं पूछताछ करूँगा।

मुझे खुशी हुई कि इतवारको तुमने सभा की। महिलाओंके मनपर उसका क्या असर हुआ? वे क्या समझीं? जो पढ़कर सुनाया गया उसे उन्हें समझानेके लिए क्या प्रयत्न

  1. दक्षिण आफ्रिकासे गांधीजीकी अनुपस्थितिमें नेटाल भारतीय कांग्रेसके अवैतनिक मन्त्री थे। वे फरवरी १९०७ में भारत आये थे। देखिए "आदमजी मियाँखाँ", पृष्ठ ३३४।