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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उठाया था। हम ट्रान्सवाल अग्रगामी दल [रैंड पायोनियर] और ट्रान्सवाल [नगरपालिका] संघसे अत्यन्त विनयपूर्वक मिलना चाहें और वे हमसे न मिलें,[१] इसका क्या अर्थ है? सिर्फ एक ही कि वे हमें कुत्तोंके समान मानते हैं और हम जो कुछ कहते हैं उसे हमारा भौंकना समझकर उसकी परवाह नहीं करते। अब कोई यह नहीं कह सकता कि अनुमतिपत्रों के बारेमें हमारा उद्देश्य सिद्ध करनेके लिए हमें जितना करना चाहिए था उतना हमने नहीं किया। यदि कोई ऐसा कहे तो वह बात जागते हुए सोनेके समान है। अब वे अच्छी तरह जानते हैं कि ब्रिटिश भारतीय संघने स्वेच्छया पंजीयनके लिए जो निवेदन किया है उससे कानूनका अनुमतिपत्र सम्बन्धी उद्देश्य सिद्ध हो जाता है। सच देखा जाये तो अब यह उद्देश्य रहा नहीं है, किन्तु खास बात तो उनके मनमें यह समा रही है कि भारतीय समाजकी बेइज्जती की जाये। भेड़ और भेड़ियेकी कहानी इस कानूनपर लागू होती है। बलवान भेड़ियेके मनमें जब गरीब भेड़को खा जानेकी इच्छा हुई तो उसने खानेके लिए कुछ बहाना ढूँढा। उसने भेड़पर इल्जाम लगाया कि तूने मेरे पीनेका पानी गन्दा कर दिया है। भेड़ने जवाब दिया कि मैं तो उतरता हुआ पानी पी रही थी। उसे जवाब मिला कि तूने नहीं तो तेरे बापने किया होगा। यह कहकर उसने भेड़ के बारह बजा दिये। इस स्थितिमें और भारतीयोंकी स्थितिमें तिल भरका भी फर्क नहीं है। चाहे जिस प्रकार हो, गोरे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि राजकीय मामलोंके बाहर भी हममें तथा उनमें समानता नहीं है, और इसीलिए यह कानून पास कराया गया है। लॉर्ड एलगिनमें जितनी न्याय-वृत्ति है उससे भय ज्यादा है। इसीलिए ट्रान्सवालके गोरोंसे डरकर उन्होंने भारतीय समाज के साथ अन्याय किया है। किन्तु जिसे राम रखता है उसे कौन खा सकता है? भारतीय समाज अपने जेल के प्रस्तावपर डटा रहेगा, ये लक्षण मुझे दिखाई दे रहे हैं। इसलिए मैं स्वयं तो आनन्दमग्न हो रहा हूँ। मुझे अभी तो ऐसा लग रहा है कि कानून पास हुआ, यह हमारी खुश किस्मती है। चारों ओर लोग इस जोशमें हैं कि जेल में जाकर महलका सुख भोगेंगे।

श्री कर्टिस साहब

उपर्युक्त विचारोंका प्रबल समर्थन करनेवाली बात भी जाहिर हो चुकी है। श्री कटिस यहाँकी विधानसभा सदस्य हैं। इस कानूनका विधाता उन्हें ही कहा जाता है। उन्होंने 'टाइम्स' में लिखा है कि यह कानून यह विचार पक्का करनेके लिए पास किया गया माना जाना चाहिए कि गोरे और भारतीयोंके बीच समानता नहीं है। हरएक ब्रिटिश प्रजा एक समान है, यह नहीं होना चाहिए। मतलब यह कि इसके द्वारा हमारी गुलामी सिद्ध करनी है। वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि किसी चीजके बारेमें हमारी मर्जी नामर्जीका विचार किये बिना उन्हें स्वच्छन्दतापूर्वक चलने का अधिकार है। वे जिस हद तक स्वराज्य प्राप्त करके स्वतन्त्र बने हैं, उसी हद तक हमें परतन्त्र बनाना चाहते हैं। गुलामी और स्वतन्त्रतामें अन्तर इतना ही है कि सामनेवाला हमसे किस प्रकार काम ले सकता है। मैं अपने भाई, सेठ या बापकी नीचसे-नीच टहल करूँ तो उसमें मेरी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, सेठ मुझे बहुत ही वफादार समझेंगे, बाप प्यारा लड़का समझेगा। किन्तु यही काम मैं मजबूरीसे करूँ तो लोग मुझपर थूकेंगे और मुझे नामर्द समझेंगे और कहेंगे कि ऐसी गुलामी करनेके बजाय फाँसी लगाकर मर क्यों नहीं

  1. देखिए "पत्र : ट्रान्सवाल अग्रगामी दलको", पृष्ठ ४६५।