६०. पत्र: ‘स्टार’ को
पो० ऑ० बॉक्स ५७
प्रिटोरिया
जुलाई ७, १९०७
सम्पादक
‘स्टार’
आपके प्रिटोरियाके संवाददाताने भारतीय समाजको यह कहकर उचित श्रेय दिया है कि ब्रिटिश भारतीयोंने इस उपनिवेशमें एशियाई पंजीयन अधिनियमको स्वीकार न करनेका जो संघर्ष आरम्भ किया है उससे "किसी गम्भीर उत्पातकी आशंका नहीं है"। महान्यायवादीने भी यह कहकर हमारी बड़ाई ही की है कि उन्हें कानूनके पालक भारतीयोंसे कानूनके विरोधकी आशा नहीं थी। अन्तर केवल यह है कि जहाँ कानूनके पालनकी सहज बुद्धि दंगों और स्थूल प्रतिरोधको असम्भव कर देती है, वहाँ उसका अर्थ यह नहीं होता कि कानूनको कितना ही अरुचिकर होनेपर भी स्वीकार कर लिया जाये। वह सहज बुद्धि हमें बताती है कि अगर हम कानून द्वारा लादा गया जुआ सहन न कर सकें तो हमें कानून भंग करने के परिणामोंको शान्तिपूर्ण गौरव और समर्पणके भावसे सहन करना चाहिए।
आपके संवाददाताने धमकी दी है कि यदि मेरे देशवासियोंने अपना रवैया न बदला तो दण्ड-विधानकी धाराएँ कडाईसे लाग की जायेंगी और उन्हें निष्कासित कर दिया जायेगा। यह धमकी अनावश्यक थी; क्योंकि हमने इस कानन-भंगके परिणामोंको सोच-समझ लिया है। पंजीयन-अधिनियम द्वारा, जिससे समूचे समाजपर अपराधी होनेकी छाप लग जाती है, बलात् लादी गई दासताकी तुलनामें जेल हमें तनिक भी भयभीत नहीं करती। जिसे हमें अपना घर समझना सिखाया गया वहीं कुत्तकी जिन्दगी बसर करनेके मकाबले तो देश-निकाला। एक मनपसन्द राहत होगी। यदि इस कानूनका हमपर उतना ही भयंकर असर पड़ता है जितना हम बताते है तो हम जितना अधिक बलिदान करेंगे, उतना ही कम होगा।
हमें साम्राज्य-भावना और साम्राज्यके सर्व-समाजी स्वरूपका अनोखा अनुभव हो रहा है। यह माना जाता है कि साम्राज्यका हाथ वलवानोंसे निर्बलोंकी रक्षा करेगा। अब ट्रान्सवालके भारतीयोंको यह देखना है कि वह हाथ निर्बल भारतीयोंकी सबल गोरोंसे—अंग्रेजों और दूसरोंसे—रक्षा करता है या नहीं, अथवा उसका उपयोग दुर्वलों और असहायोंको कुचलनेमें अत्याचारीके हाथोंको मजबूत करने के लिए किया जायेगा। इस शब्दका प्रयोग करनेके लिए क्षमा करें, किन्तु क्या हमारी प्रत्येक भावनाकी और हमारे धर्मोकी अवहेलना करना अत्याचार नहीं है, क्योंकि यह प्रवासको नियन्त्रित करनेका प्रश्न नहीं है? पुनःपंजीयनके सिद्धान्तको हमने मान लिया है, उसकी विधिपर हम तीव्र रोष प्रकट करते हैं। किन्तु