बुझानेकी अपनी समस्त सम्भव शक्तिको काममें लाकर, हम उन लोगोंको, जो जानते नहीं, एशियाई पंजीयन अधिनियमके उस रूपसे परिचित कराना जरूर चाहते है, जिसे ठीक माना जाता है। इसके बाद यह बात उन्हीं लोगोंपर छोड़ दी जाती है कि वे हमारी सलाहको माने या इस अपमानजनक कानुनको स्वीकार कर इस देशम दीन-हीन जीवन व्यतीत करनेके लिए अपने-आपको बेच दें। जैसा मैंने पहले कहा है, यदि उपनिवेशियोंको मालम हो जाये कि इस कानूनका अर्थ क्या है तो वे स्वयं इस कानूनको माननेवाले भारतीयोंको ठोकर मारने और घृणा करने योग्य कुत्ते कहकर पुकारेंगे।
भारतमें अँगुलियोंके निशानोंके प्रयोगके सम्बन्धमें आपने श्री हेनरीके कथनको—मेरा खयाल है, भारतीयोंके हितको ही दृष्टिगत करके—उद्धृत किया है। किन्तु हमने उनके सत्प्रयोगसे कभी इनकार नहीं किया। मेरा और मेरे देशवासियोंका विरोध तो इस प्रथाके दुरुपयोगके प्रति है।
आप आशा करते है कि मेरे देशवासियोंमें समझ आ जायेगी और वे इस कानुनको मान लेंगे। इसके विपरीत मैं आशा करता हूँ कि यदि मेरे देशवासी उपयुक्त साहस करेंगे और अपना सम्मान और स्वाभिमान खोनेके बजाय अपने सर्वस्वका त्याग करनेके लिए तैयार हो जायेंगे तो आप अपने विचार बदलेंगे और उन्हें अपनी बातके पक्के मानकर उनका आदर करेंगे। मैं आपको याद दिला दूं कि भारतीयोंने ईश्वरको साक्षी बनाकर शपथ ली है कि वे इस कानूनको न मानेंगे। न्यायालयमें ली गई झूठी शपथका प्रायश्चित्त न्यायाधीशके दिये हुए दण्डको भोगनेसे हो सकता है। किन्तु जो परम न्यायाधीश कभी भूल नहीं करता उसके सामने झूठी शपथ लेनेका क्या प्रायश्चित्त हो सकता है? यदि हम उसके सामने ली हुई शपथ झूठी कर देंगे तो सचमुच हम किसी भी सभ्य समाजमें रहनेके अयोग्य होंगे, और पुराने जमानेकी चाण्डाल-बस्तियाँ ही हमारे लिए उचित और उपयुक्त स्थान होंगी।
आपका, आदि,
मो० क० गांधी
रैंड डेली मेल, ९-७-१९०७