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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी अन्याय सहन नहीं होगा।" पिछले रविवारको हमीदिया अंजुमन [की एक बैठक] में मौलवी मुहम्मद मुख्त्यार साहबने भी यही कहा था कि हमें तो अपना शिष्टमण्डल अब खुदाके दरबारमें ही भेजना है। पिछले रविवारको जर्मिस्टनमें जन्माष्टमीके उत्सव में यही विचार सारे हिन्दुओंने व्यक्त किया था। इस तरहको प्रार्थना सब कर सकते हैं।

एक प्रश्नके उत्तरमें श्री गांधीने बताया:

लेडीस्मिथके सम्बन्धमें हमें अभी जो मौका मिला है उसके लिए 'ओपिनियन' के पिछले अंकमें तीन मार्ग सुझाये गये हैं[१]। उनमेंसे एक अपनाया जाना चाहिए। जिस मुकदमेकी अपील हम एक दफा विलायत ले गये थे, उसमें और इसमें अन्तर है। इस मामलेमें हम निकायके समक्ष फरियाद कर सकते हैं और यदि वहां सुनवाई न हो तो सम्राट्की न्याय परिषदमें अपील कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए धनकी पूरी आवश्यकता है। हिम्मत रखकर दूकानें खोल दी जायें इसे मैं ज्यादा अच्छा समझता हूँ। लेकिन लड़ाई शुरू करनेके बाद उसे आखिर तक निभाना चाहिए। दूकानदार जुर्माना न दें और अपने मालका बार-बार नीलाम होने दें। जिन व्यापारियोंको इस वर्ष परवाने मिल गये हैं उन्हें सरकारसे अर्जी करनी चाहिए कि हमारे भाइयोंपर इस तरह अन्याय होता है तो हम भी अगले वर्ष बिना परवाने के दूकान खुली रखेंगे। यदि इस तरह हिम्मत और दृढ़ताके साथ हम सम्पत्तिका महान बलिदान करेंगे तो निश्चित ही जीतेंगे और तभी जो पैसे कमाये हैं और जो कमायेंगे उसकी गिनती होगी, नहीं तो कुत्ते की तरह जीयेंगे।

बन्दरगाहपर प्रवास कार्यालयमें गवाहके अंगूठेके निशान लिये जाते हैं। यह कानूनके विरुद्ध है। प्रवास अधिकारी अंगूठेके निशान ले सकता है, यह कानूनमें है ही नहीं। इसलिए इस विषयमें यदि धीरज और दृढ़तासे लड़ाई की गई तो यह प्रथा मिट जायेगी। यह प्रथा अभी शुरू हो रही है। इसके अंकुरको फूटते ही जला देनेकी जरूरत है।

ट्रान्सवालमें कुछ लोग समझौता करके पंजीकृत होना चाहते हैं, इस सम्बन्ध में पूछे जानेपर श्री गांधीने बाताया:

प्रिटोरियामें कुछ मेमन सरकारसे समझौता करके पंजीकृत होना चाहते हैं। इस समझौतेमें जरा भी लाभ नहीं है, बल्कि नुकसान है। हमारी लड़ाईके सच्चे स्वरूपको जिन्होंने समझ लिया है उन्हें ऐसे समझौतेसे संतोष नहीं होगा। संघने इस समझौते के सम्बन्ध में जो पत्र भेजा है वही ठीक है। जिन्हें नाममात्रके समझौतेसे सन्तोष होता हो वे समझौता करनेके बजाय अभी ही पंजीयनकी अर्जी दें तो उससे समाजकी लड़ाई लूली नहीं होगी।

नगरपालिका मताधिकारके कानूनको लॉर्ड एलगिनने नामंजूर कर दिया है। यह खबर उसी दिनके अखबारमें प्रकाशित हुई थी। इसको समझाते हुए श्री गांधीने कहा:

इस जीतका यश लन्दनकी समितिको है। यह कानून यहाँसे बहुत ही पहले सम्राट्की स्वीकृतिके हेतु विलायत पहुँच गया था। वहाँ अबतक विचारार्थ पड़ा रहा। इसलिए कभी उसके रद होनेकी सम्भावना की जा सकती थी। लेकिन समितिने परिश्रमपूर्वक जो लड़ाई की, उसे न करके यदि वह चुप बैठी रहती तो जो परिणाम हम आज देखते हैं वह नहीं होता। आशा है, अब हम सब मताधिकारका लाभ भोगेंगे।

  1. देखिए "लेडीस्मिथके परवाने", पृष्ठ २०४-५।