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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

समान, हमारा अधिकारी जैसा कहता है, वैसा करते रहते हैं। बहुत-से लोग इस कामको अपना पेशा बना लेते हैं। और फिर अमुक लड़ाई बुरी है, यह निश्चित रूपसे समझते हुए भी वे लोग उसमें कूद पड़ते हैं। इन्हें क्या हम मनुष्य समझेंगे या कसाईके हाथका कुल्हाड़ा? ऐसे लोग लकड़ीके टुकड़े अथवा ईंटके समान बन जाते हैं। तब उन्हें आदर किस प्रकार दिया जा सकता है? उनका मूल्य कुत्ते-बिल्लीसे अधिक कैसे समझा जाये? फिर कुछ लोग कानूनके समर्थक बनते हैं, राजदूत बनते हैं, वकील बनते हैं। उन्हें अपनी बुद्धिके द्वारा राज्यकी रक्षा करनेका घमण्ड रहता है। परन्तु मैं देखता हूँ कि वे बिना सोच-विचार किये अनजानमें शैतानकी भी सेवा करते हैं। जो अपनी न्याय-बुद्धिको कायम रखकर राज्यकी बागडोर अपने हाथमें रखते हैं, वे वास्तव में हमेशा राज्यका विरोध करते हुए मालूम होते हैं।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ७-९-१९०७

१७७. डर्बनमें अँगुलियोंकी छाप देनेका आतंक

कुछ दिनोंसे चर्चा चल रही है कि डर्बनके रास्ते जो भारतीय अपने देश जाना चाहते हैं उन्हें अधिवास प्रमाणपत्र देनेके पहले प्रवासी अधिकारी उनके गवाहोंसे अँगूठे लगवाता है। कुछका यह भी कहना है कि इस सम्बन्धमें काँग्रेसको झगड़ा करना चाहिए। ऐसा कानून अभी बना तो नहीं है, फिर भी, हम मानते हैं, इस तरहसे उसकी शुरुआत हो रही है। इस सम्बन्धमें काँग्रेस जो कुछ भी मदद कर सकती है, उससे बहुत ज्यादा लोगोंको खुद करना चाहिए। जब भी अँगूठे मांगे जाते हैं, लोग यदि अपनी गरज निकालनेके लिए दे देते हैं, तो काँग्रेस उसका इलाज नहीं कर सकती। अधिवास प्रमाणपत्रके लिए आवश्यक प्रमाणके सम्बन्ध में निर्णय करनेका काम प्रवासी-अधिकारीको दिया गया है। वह बिना अँगुलियोंकी छाप लिये प्रमाणपत्र देनेसे इनकार भी कर सकता है। और यदि कोई आजिजीके साथ माँगे तो वह उसकी गरजका लाभ उठाकर उससे अंगूठे लगवा सकता है। यहाँ हम यह नहीं कहना चाहते कि उसका यह काम उचित या न्यायपूर्ण है, न हम यह कहना चाहते हैं कि अमुक परिस्थितिमें बाकायदा नहीं लड़ा जा सकता; बल्कि हमें यही कहना है कि इस तरहकी लड़ाई में यदि हम जीत भी गये तब भी सम्भव है हार ही होगी। जबतक भारतीय झूठी शपथ लेते रहेंगे और गलत तरीकेसे अधिवास प्रमाणपत्र लेनेकी इच्छा रखेंगे तबतक इस तरहके कष्ट हुआ ही करेंगे। लेकिन इसपर ध्यान देने की आवश्यकता इस समय हमें नहीं दिखाई देती। हम तो निश्चित रूपसे मानते हैं कि यदि ट्रान्सवालकी लड़ाई में हमारी जीत होगी यानी भारतीय समाज अपनी शपथका निर्वाह करेगा और लाख कष्ट उठाकर भी खूनी कानूनकी शरण नहीं जायेगा, तो हमपर जुल्म करनेका जो पौधा ट्रान्सवालमें रोपा गया है, वह फूटते ही जल जायेगा। इसके बाद हम नहीं मानते कि कोई दूसरा उपनिवेश इस तरहके कानून बना सकेगा। बड़ी सरकारकी हालत साँप-छछूंदरकी-सी हो गई है। और यदि ट्रान्सवालमें हम अन्ततक जूझते रहे तो एलगिन साहब सम्राट्को ऐसे कानूनपर सही करनेको सलाह देना भूल जायेंगे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ७-९-१९०७