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कानूनका विरोध–एक कर्तव्य

करते थे। उनमें से एक उपाय यह था कि जिस राज्य में गुलामीका व्यापार चालू हो उस राज्यको कर न दिया जाये। जब उन्होंने अपना कर देना बन्द किया, उन्हें जेलमें भेज दिया गया। जेलमें उनके मन में जो विचार आये वे बहुत दृढ़ और स्वतन्त्र थे तथा पुस्तकके रूपमें प्रकाशित हुए हैं। उस पुस्तक के अंग्रेजी नामका भावार्थ हमने इस लेखके शीर्षकके रूपमें दिया है। इतिहासकार कहते हैं कि अमेरिकामें गुलामी बन्द होनेका मुख्य कारण था थोरोका जेल जाना और जेलसे निकलने के बाद उपर्युक्त लेख संग्रह प्रकाशित करना। थोरोका अपने आचरण द्वारा पेश किया हुआ उदाहरण और उनके लेख दोनों ट्रान्सवालके भारतीयोंपर इस समय बिलकुल यथार्थरूपमें लागू हो रहे हैं। इसलिए हम उनका सारांश नीचे दे रहे हैं:

मैं स्वीकार करता हूँ कि राज्य में लोगोंपर जितना कम शासन होगा उतना ही वह राज्य अच्छा है। अर्थात् राज्य शासन एक प्रकारका रोग है, और उस रोगसे प्रजा जितनी मुक्त रह सके उतना हो वह राज्य शासन प्रशंसनीय है।

बहुतेरे लोगोंका कहना है कि अमेरिकामें सेना न हो अथवा कम हो तो अच्छा रहे। यह बात ठीक है। किन्तु ऐसी बातें कहनेवालोंका खयाल गलत है। उनका कथन यह है कि राज्य-शासन लाभदायक है। उसकी सेना ही नुकसान पहुँचानेवाली है। ये मूर्ख लोग यह नहीं समझते कि सेना राज्य शासनका शरीर है और उसके बिना उसका काम घड़ी-भर भी नहीं निभ सकता। किन्तु हम स्वयं चूँकि राज्य-शासनके मदमें अन्धे हैं, इसलिए इस बातको नहीं देख सकते। सचमुच देखा जाये तो सेना एवं राज-शासन दोनोंको हमने यानी प्रजाने ही बनाये रखा है।

इस तरह हम देखते हैं कि हम अपने-आपसे ठगे जा रहे हैं। अमेरिकाका संविधान अमेरिकी जनताको स्वतन्त्र रखता अथवा स्वतन्त्रताकी तालीम देता है, ऐसा कुछ भी नहीं। जिस राज्यको हम देख रहे हैं वह कुछ-कुछ अमेरिकी जनताके गुण और दोषोंका परिणाम है। अर्थात् यद्यपि हम सुसंस्कृत और होशियार हैं फिर भी राज्य शासनके कारण हमारे विकासमें न्यूनता है।

इतना होनेपर भी मैं राज्यका उन्मूलन करना नहीं चाहता। परन्तु तत्काल तो अच्छी राज्य-व्यवस्था चाहता हूँ और ऐसी अपेक्षा रखना प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है। जिस देशमें सभी बातें बहुमतसे की जाती हों वहाँ न्याय ही होता है यह मानना निरा भ्रम है। और इस भूलको न देख पाने के कारण बहुतेरे अन्याय होते रहते हैं। अधिक मनुष्य जो काम करते हैं वह सही ही होता है, यह मान्यता एक बेकारका वहम है। क्या ऐसा राज्य नहीं हो सकता जहाँ बहुमतकी रायका पालन होनेके बजाय सत्यका ही पालन हो? क्या मनुष्यको अपनी रू अथवा आत्मा हमेशाके लिए शासकोंके सुपुर्द कर देनी चाहिए? मैं तो यह कहता हूँ कि पहले हम मनुष्य हैं, और बादमें प्रजा। मुझे कानूनका आदर करनेके गुणका विकास करनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं दीखती। सच्चेका आदर करनेकी आवश्यकता सदैव है। मुझसे केवल एक ही कर्तव्य अपनाया जा सकता है, और वह है कि जो सच्चा हो वही मैं करूँ। कानूनके द्वारा मनुष्यको अधिक न्यायी बना हुआ मैंने कभी नहीं देखा। किन्तु मैंने यह तो देखा है—और अब भी देखता हूँ— कि सामान्य न्याय-बुद्धिवाले मनुष्य अपने भोलेपनके कारण अन्यायके प्रसारके दूत बन जाते हैं। कानूनको बेहद सम्मान देनेका परिणाम हम सब लोग देखते हैं कि हम बन्दरों-जैसे सैनिक बन जाते हैं और बिना कुछ पूछताछ किये यन्त्रके