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भीमकाय प्रार्थनापत्र

१०. सब हस्ताक्षर अधिकसे-अधिक ३० सितम्बर तक भेज दिये जायें।
११. लोगोंपर कोई दबाव न डाला जाये और जो बिलकुल अन्ततक अधिनियमको न माननेके निश्चयका पालन करने के लिए तैयार न हो, उसको हस्ताक्षर करनेकी आवश्यकता नहीं है।
१२. कागजोंकी घड़ी बनाई न जाये, बल्कि वे पुलिन्दा बनाकर रखे जायें और पुलिन्देके रूपमें ही भजे भी जायें।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-९-१९०७

१९०. भीमकाय प्रार्थनापत्र

ट्रान्सवालके भारतीय सरकारको एक भीमकाय प्रार्थनापत्र देनेका आयोजन करनेके लिए बधाईके पात्र हैं। पिछले सप्ताह दुर्भाग्यसे हमें जो पत्र[१] उद्धृत करना पड़ा था, उसका यह पूरा जवाब है। प्राथियोंने हमेशाके लिए मुख्य मुद्देको, जहाँतक सम्भव हो सका है, संक्षेपमें लिपिबद्ध कर दिया है। उन्होंने स्पष्ट किन्तु आदरपूर्ण भाषामें स्थानीय सरकारको आगाह कर दिया है कि सिवा एशियाई पंजीयन कानूनको वापस लेनेके किसी और तरह इस मुसीबतसे पार पा जाना सम्भव नहीं है। इसके साथ ही वे यह भी कहते हैं कि कानूनको वापस लेनेकी दरखास्तका यह मतलब नहीं है कि वे एशियाइयोंके चोरीसे भर आनेके इल्जामकी जाँचसे डरते हैं। और न वे उन अनुमतिपत्रोंको, जो इस समय उनके पास हैं, बदलने से इनकार ही करते हैं। इसलिए बुनियादी मुद्दा यह है कि भारतीय लोग साम्राज्यके आत्माभिमानी नागरिक स्वीकार किये जायें या नहीं। हमारे सहयोगी 'स्टार'ने अभी उस दिन भारतीयोंको ताना दिया था कि उन्होंने अपने इंग्लैंडके मित्रोंको आन्दोलनके सही मुद्देसे गुमराह कर दिया है; और उसने बताया था कि ब्रिटिश भारतीय सिर्फ अँगुलियोंके निशान देनेके खिलाफ लड़ रहे हैं। जब 'स्टार'ने यह लिखा था, लगभग तभी श्री रिचने, जो दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समितिके अथक परिश्रम करनेवाले मन्त्री हैं, इस बारेमें 'लंकाशायर डेली पोस्ट' को एक पत्र लिखा था। उसमें से निम्नलिखित अंश हम यहाँ दे रहे हैं:

बेशक यह सच है कि एशियाई पंजीयन कानून यह चाहता है कि ब्रिटिश भारतीय और अन्य एशियाई शिनाख्तके लिए पंजीयन करायें। और इस कानूनको लागू करनेकी शर्तोमें दसों अँगुलियोंके निशानोंका देना भी शामिल है, जो एक ऐसी एहतियात है जिसका सम्बन्ध पूर्ण रूपसे अपराधियोंसे है। लेकिन इस कानूनकी वजहसे ट्रान्सवालके हमारे भारतीय साथियोंको जिस अपमानका बोझ उठाना पड़ता है उसे पूरी तरहसे समझने के लिए यह जान लेना जरूरी है कि यह खास अपमान एक संयोगमात्र है और अगर हम उस बड़े सिद्धान्तसे इसकी तुलना करें जिसके अनुसार साम्राज्यकी सभ्य प्रजा होनेके नाते ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय समाजको सभ्य व्यवहार पानेका अधिकार है, तो यह इतनी महत्त्वकी नहीं प्रतीत होगी। और इस कारण भारतीय उन मौलिक

  1. यह संकेत सर्वश्री स्टैगमान, एसेलेन और रूज़ द्वारा लिखे गये पत्रकी ओर है। देखिए पिछला शीर्षक।