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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अधिकारोंमें दस्तंदाजी और उनके छिननेकी आशंका होनेपर अपने शासकोंसे उनकी रक्षाकी आशा रखते हैं।

भारतीयोंका दावा इससे अधिक स्पष्ट भाषामें पेश नहीं किया जा सकता।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-९-१९०७

१९१. वीनेन परवानेकी अपील

ऐसा कभी-कभी ही होता है कि व्यापारिक परवाना अधिकारियों और परवाना निकायके निर्णयोंसे हम सहमत हो सकें, लेकिन हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि श्री भायातका मामला[१] कठिन था तब भी परवाना अधिकारी और निकायका निर्णय सिद्धान्त रूपमें निर्दोष था। परवाना अधिकारी श्री इन्ग्रामने अपने निर्णयके पक्षमें पूरी और स्पष्ट दलीलें दी थीं और हमें भी उनके इस कथनपर विश्वास है कि अगर प्रजातिकी दृष्टिसे स्थिति इससे उलटी होती तो भी उनका निर्णय यही होता। उपनिवेशमें जिस पूर्वग्रहका बोलबाला है उसको देखते हुए हमारे देशवासियोंको यह बात पक्की तरह समझ लेनी चाहिए कि दक्षिण आफ्रिकामें नहीं तो कमसे-कम नेटालमें उनके लिए अबाध व्यापारकी सहूलियतें मिलना असम्भव है। हमारी रायमें कमसे-कम जिस सुविधाका आश्वासन दिया जा सकता है, और जिसपर किसी भी कीमतपर जोर देना चाहिए, वह यह है कि मौजूदा परवानोंकी पवित्र वस्तुकी भाँति हिफाजत की जाये; लेकिन नई अजियोंके बारेमें, जैसी कि हमारी समझमें श्री भायातकी अर्जी थी, यही कह सकते हैं कि स्थानीय लोकमत, परवानोंके वितरण और मांग तथा उसकी पूर्तिकी मात्रासे परवाना अधिकारीको बहुत कुछ मार्गदर्शन मिलना चाहिए। इसमें शक नहीं कि कानूनकी सहायताके बिना भी किसी जातिके लिए यह छूट है कि वह किसी भी वर्ग या कितने ही व्यापारियों या दूसरोंका, जिन्हें वह नहीं चाहती, बहिष्कार कर दे। लेकिन जब द्वेषकी आगको भड़कानेके लिए कानूनकी मदद ली जाती है, तब बहिष्कार असहनीय हो जाता है और उस बुराईको दूर करनेके लिए और मजबूत हाथोंकी जरूरत होती है। साथ ही, श्री भायातके जैसे मामले बिना सहानुभूति उत्पन्न किये नहीं रह सकते। यहाँ एक ऐसा व्यक्ति सामने आता है, जिसका सब वर्गोंके लोग आदर करते हैं, जो एक लम्बे अर्सेसे योग्य व्यापारी रहा है, जिसने ब्रिटिश सरकारकी, उसी प्रदेशमें जिसमें वह व्यापारी परवाना चाहते है, काफी मदद की है और ऐसी कोई नैतिक या आर्थिक बात नहीं है, जिसकी बिनापर उसकी अर्जी नामंजूर कर दी जाये। लेकिन जहाँ विरोधी स्वार्थ उठ खड़े होंगे और जहाँ निजी स्वार्थको सामने रखकर कोई खास नीति अपनाई जायेगी, वहाँ ऐसे कठिन मामले हमेशा होते रहेंगे। इसलिए इसके शिकार होनेवाले लोगोंके लिए यही दूरदर्शिता है कि वे वस्तुस्थितिको पहचानें और अपनी ताकतको इस तरह साधें कि अपने मौजूदा अधिकार और आत्मसम्मानके अपहरणका मुकाबला कर सकें।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-९-१९०७
  1. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ३७०-१, ३७४-५ और ३८४-५।