जोहानिसबर्ग पकड़में आया
जोहानिसबर्गपर १ अक्तूबरको चढ़ाई होगी। यहाँ त्रिमूर्तिको नियुक्त किया गया है। दो तो कोडी हैं और तीसरे स्वीट साहब। इसलिए जो जोहानिसबर्ग आजतक शेखी मारता आया है, उसकी परीक्षाका समय नजदीक आ गया है। श्री गांधीने प्रिटोरियामें शेखी मारी थी कि कार्यालय पहले जोहानिसबर्ग में आया होता तो ठीक होता।[१] श्री ईसप मियाँ और श्री कुवाड़ियाने भी ऐसा ही कहा था। इसके अलावा श्री ईसप मियाँने तो श्री रूसको एक जोरदार पत्र भी लिखा है कि "नेताओं" की ओरसे श्री रूसने जो बेहूदा पत्र लिखा है उससे संघका और खासकर जोहानिसबर्गका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। जोहानिसबर्ग संघका केन्द्रीय स्थान है। वहाँके भारतीयोंने कानूनके विरोध में बहुत कुछ कहा है। वहीं एम्पायर और गेटी नाटकघरोंमें दो सभाएँ हुई हैं।[२] इतना सब होने के बाद भी क्या जोहानिसबर्ग हार जायेगा? लेकिन अभी तो बड़ी देर है। एक पूरा महीना सामने है। प्रिटोरियामें अन्तिम दिनोंमें ही लोग फिसले थे। इसलिए जोहानिसबर्ग में अक्तूबरके तीन सप्ताह तो आसानीसे निकल जाना सम्भव है। लेकिन यदि अन्तिम सप्ताह भी ऐसा ही निकल जाये और एक भी भारतीय पंजीयन कार्यालयका नाम न ले तो? इसका जवाब देना जरा मुश्किल है। भैंस अभी तो जंगलमें ही है तब इधर सौदेकी बात कैसी? लेकिन मैं इतना अनुमान तो कर सकता हूँ कि यदि जोहानिसबर्ग पूर्ण बहिष्कार कर सका तो सरकारको कुछ तो विश्वास हो ही जायेगा कि हम आखिरी दम तक लड़ाई चालू रखना चाहते हैं। हमें यह अच्छी तरहसे समझ लेना चाहिए कि यह लड़ाई हमारी सचाई साबित करनेके लिए है। आज सरकार या किसीको भी यह विश्वास नहीं है कि हम सच्ची हिम्मतसे लड़ रहे हैं। और जबतक हमारे बीच श्री शेख अहमद इशाक जैसे दोनों ओर ढोल बजानेवाले मौजूद हैं, तबतक विश्वास कैसे हो सकता है?
पीटर्सबर्गके 'बहादुर'
श्री शेख मुहम्मद इशाककी बात करते समय ही मुझे दूसरी खबर मिली है। वह भी मैं पाठकोंके सामने रखता हूँ। पीटर्सबर्ग से जिन चार 'बहादुर' भारतीयोंने गुलामीका पट्टा ले लिया है उसके नाम हैं....।[३] यहींसे ८६ भारतीयोंके हस्ताक्षरोंके साथ जो अर्जी भेजी गई थी, मालूम हुआ है, उसपर भी इन चारों महाशयोंने हस्ताक्षर किये थे। जबतक यह होता रहे तबतक सरकार किस भारतीयका विश्वास कर सकती है? हम अर्जीमें जो कुछ लिखते हैं उसे सच्चा कैसे माना जा सकता है? यह भी सुनने में आया है कि इन महाशयोंसे कुछ हलफनामे भी लिये गये हैं। इस तरहकी गप्पें तो बहुतसी हैं। कोई कहता है कि उन्होंने यह लिखवाया है कि उन्हें श्री गांधीने रोका था, इसलिए उन्होंने गुलामीकी अर्जी नहीं भेजी। कोई कहता है कि उन्होंने अपने समाजकी शर्मके मारे अर्जी नहीं दी । यदि यह सच है तो इन हलफनामे देनेवालोंको सोचना चाहिए कि क्या उस डर और शर्मको वे अब नहीं महसूस करते? इस सबके बावजूद डरपोक विरोधी दलमें भी जा घुसें तो उससे कुछ नहीं बिगड़ेगा। यह लड़ाई ऐसी है कि इसके द्वारा डरपोक बहादुरसे अलग दिखने लगेंगे। इसके अलावा यह भी मालूम हो