तो आपने उनका बयान सुने बिना ही उन्हें दोषी ठहरा दिया?
मुझे उनका पत्र मिला है। यह बात न भूलें!
तब उसे पेश कीजिए।
मैं पेश कर चुका हूँ।
किन्तु वह पत्र शिकायतोंका उत्तर तो नहीं है?
मैंने यह नहीं कहा कि वह उनका उत्तर है।
तब तो वही बात हुई जो मैंने कही; आपने सुनवाई किये बिना ही उन्हें दोषी ठहरा दिया।
मैंने उनको कुछ शर्तोंके साथ ट्रान्सवालमें आनेकी अनुमति दी थी। इन शर्तोंको उन्होंने नहीं निभाया।
क्या आपने कभी उनको इसकी सूचना दी?
अब देता हूँ।
उनको फांसी देने के बाद?
नहीं; फाँसी देनेके बाद नहीं। मैं इस आक्षेपको पसन्द नहीं करता।
तब गवाहने गत ९ अक्तूबरका एक पत्र पढ़ा जो उन्होंने अभियुक्तको तत्काल उपनिवेशसे चले जानेकी सूचना देते हुए लिखा था।
श्री गांधी: इससे मेरे प्रश्नका उत्तर बिलकुल नहीं मिलता।
मेरा उत्तर यही है।
इसके बाद अभियोग-पक्षकी कार्रवाई समाप्त हो गई…।
बचाव
…सरकारी वकील: अभियुक्तका धरनेदारोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा?
श्री गांधी: मैं मानता हूँ कि वे मुख्य धरनेदार थे…।
…तब श्री गांधीने अदालतको सम्बोधित किया। उन्होंने स्वीकार किया कि कानून जैसा है उसके अनुसार सजा अवश्यम्भावी है; किन्तु उन्होंने अनुरोध किया कि यह मामला ऐसा है जिसमें अदालतका मत व्यक्त करना आवश्यक है। उन्होंने "ताज बनाम भाभा" के मुकदमेकी नजीर दी, जिसमें सर्वोच्च न्यायालयने शान्ति-रक्षा अध्यादेशके प्रशासनके तरीकेके विरुद्ध तीव्र मत व्यक्त किया था। उन्होंने कहा, मेरे मुवक्किलपर मुकदमा इसलिए नहीं चलाया गया कि उनके पास अनुमतिपत्र नहीं हैं; बल्कि, जैसा बिलकुल स्पष्ट है, इसलिए चलाया गया कि एशियाई अधिनियमके सम्बन्धमें उनके विचार तीव्र हैं और उनको वे अपने देशवासियोंके सम्मुख रखनेमें झिझके नहीं हैं। यदि यह अपराध हो तो भारतीयोंकी बहुसंख्या अभियुक्तके समान ही अपराधी है। उचित या अनुचित, रामसुन्दर पण्डितका विश्वास यह है कि इस अधिनियमके सम्बन्धमें सच्ची बातोंको अपने देशवासियोंके सम्मुख रखना धर्म-प्रचारकके रूपमें उनके कर्तव्योंका अंग है। धार्मिक आपत्ति अंगुलियोंके निशान देने और पत्नीका नाम