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हम कानूनके विरुद्ध क्यों है?


ऊपर हमने जो कुछ कहा है उसके बाद यह दिखाना, शायद, अनावश्यक है कि इसमें धार्मिक आपत्ति कहाँ है, किन्तु इसकी अधिक बारीकीसे जाँच करना, सम्भवतः आवश्यक है, क्योंकि सद्भाव रखनेवाले मित्रोंने भी यह प्रश्न किया है। उच्चतम दृष्टिकोणसे परखते हुए हम उस कारगर दलीलसे काम नहीं लेंगे जो तुर्क मुसलमानों तथा अन्य तुर्क प्रजाजनोंके बीच किये जानेवाले मनमाने और द्वेषजनक भेदभावके रूपमें हमें प्राप्त है, किन्तु हम धर्मात्मा पुरुषोंके सामने अपनी दलील एक सीधे-सादे प्रश्नके रूपमें रखेंगे: यदि यह सच हो कि भारतीय लोग शुद्ध अन्तःकरणसे यह मानते हैं कि अधिनियम उनको पौरुषहीन बनाता है, उनको गिराता है, उनको प्रायः दास बना देता है तो क्या जो मनुष्यताके दर्जेसे कम हैं वे कभी परमात्माकी पूजा कर सकते हैं? क्या वे मनुष्य, जो कानून-विशेषके घातक परिणामोंको अच्छी तरह जानते भी उसे मात्र स्वार्थपरता तथा सांसारिक समृद्धिके क्षुद्र उद्देश्योंसे स्वीकार कर लेते हैं, कभी परमात्माकी सेवा कर सकते हैं?

इस दृष्टिसे देखनेपर यह साफ हो जाता है कि यह संघर्ष अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। मुट्ठीभर आदमी, जिनको आम तौरपर कोई खास बहादुर नहीं समझा जाता, अपनेसे अधिक शक्तिशाली और असीम सत्ता-सम्पन्न सरकारके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। क्या वे कामयाब हो सकते हैं? हम जोर देकर कहते हैं, "हाँ"—बशर्ते कि वे, जैसा अबतक करते आये हैं, अभिप्रेत परिणामके अनुपात में ही महान् बलिदान करनेको इच्छुक और प्रस्तुत हों।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३०-११-१९०७

३०६. हम कानूनके विरुद्ध क्यों हैं?

इस प्रश्नके उत्तरमें आज बारह महीनोंसे कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहा है। इतना होनेपर भी हमें डर कि लड़ाईकी जड़ इतनी गहरी है कि इने-गिने भारतीय ही उसे ठीक तरहसे समझते हैं। यह आशा की जा सकती है कि अब सच्चे खेलका प्रसंग आ पहुँचा है। हमें उम्मीद है कि सरकार डरी हुई है तो भी सौके लगभग भारतीयोंपर हाथ डालेगी ही। यदि न डाले तो हमें सचमुच खेद होगा। यों कहना सरसरी तौरसे देखनेपर कदाचित् उचित न माना जाये, फिर भी हम अपने कथनको न्यायोचित समझते हैं, क्योंकि हमारी कसौटीका समय आ गया है। लोग जोश में हैं। इस अवसरको चुका कर सरकार हमारा डंका नहीं बजने देगी। इसलिए फिर ऐसा अवसर और नहीं आनेवाला है। युद्धमें पहुँचा हुआ योद्धा बिना लड़ाई किये लौटनेपर जिस प्रकार निराश हो जाता है, ट्रान्सवालके भारतीयोंकी इस समय वैसी ही दशा है। इसलिए, और कुछ नहीं, तो सौके लगभग भारतीय जेल जायें तभी लड़ाई जमी मानी जायेगी। यह समाचारपत्र ट्रान्सवालके पाठकोंके हाथमें पहली या दूसरी दिसम्बर तक ही पहुँच पायेगा। उस समय बहादुर लोग इस विचारसे आतुरतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे होंगे कि हम पहले रणमें जायें, अर्थात् बिना अपराधके पकड़ लिये जायें। और कायर घरमें दुबक कर 'हाय, पकड़ लेंगे तो' इस डरके मारे बिन मौतके 'मरे! मरे!' कर रहे होंगे। और दोगलोंके भाग्यमें तो ऐसे देश-प्रेमका अवसर होगा ही कहाँसे? कायर और बहादुर दोनोंके लिए दो