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३०५. हम विरोध क्यों करते हैं

पिछले पन्द्रह महीनों में मुश्किलसे ऐसा कोई सप्ताह गुजरा होगा, जब इन पृष्ठोंमें एशियाई कानून संशोधन अधिनियमके विरुद्ध कोई वक्तव्य प्रकाशित न हुआ हो। और तब भी इस तथ्यसे इनकार नहीं किया जा सकता कि अधिकांश यूरोपीय तथा अनेक भारतीय भी यह नहीं बता सकेंगे कि महज पंजीयन कानूनका इतना तीव्र तथा सतत विरोध क्यों किया जाना चाहिए। कुछ लोगोंका कहना है कि अधिनियम इसलिए आपत्तिजनक है कि उसके अनुसार एशियाइयों और उनके आठ सालसे ऊपरकी आयुवाले बच्चोंको अपनी अंगुलियोंके निशान देने पड़ते हैं, जब कि कुछ अन्य लोगोंकी आपत्ति इस बातपर आधारित है कि यह एशियाइयोंको परेशान करनेके असीम अधिकार दे देता है। हम इन आपत्तियोंका महत्त्व कम नहीं आँकते, लेकिन हमको यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि अपने-आपमें ये आपत्तियाँ नगण्य हैं और कमसेकम उस बलिदानके योग्य तो नहीं ही हैं, जिसकी भारतीयोंने शपथ ली है।

तब यह जी-तोड़ संघर्ष किसलिए? इसका उत्तर यह है कि यदि इस अधिनियमको उन घटनाओंके सन्दर्भमें पढ़ा जाये जो इसके पूर्व घटित हुई और जिन्होंने इसको जन्म दिया, तो ज्ञात होगा कि यह एक ऐसा कानून है जो भारतीयोंको आदमी मानता ही नहीं है, जब कि भारतीय भी जीवनकी सभी सारभूत बातोंमें उतने ही सभ्य होनेका दावा करते हैं जितने कि स्वयं कानून-निर्माता। यह अधिनियम एक ओर तो ट्रान्सवाल-सरकारको यह अधिकार देता है कि वह भारतीयोंके साथ, उनके विचारों और भावनाओंकी कोई परवाह किये बिना, जैसा चाहे वैसा बरताव कर सकती है। दूसरी ओर सरकार इस बातसे मुकर जाती है कि उसे ऐसा कोई सहज अधिकार प्राप्त है, विशेषकर उस दशामें जब कि उसके क्रिया-कलापोंका सम्बन्ध वैयक्तिक स्वतन्त्रताको कम करने अथवा उसपर आघात करनेसे हो।

यदि हमसे यह बतानेको कहा जाये कि सरकारका ऐसा कोई मन्तव्य या दावा अधिनियमकी किस धारासे प्रकट होता है तो अपनेको भावुकताके आरोपका भागी बनाये बिना किसी एक विशेष धारापर अँगुली रखना, शायद, मुश्किल होगा। जिस प्रकार यह बताना सम्भव नहीं है कि अफीमके किस खास कणमें विष है, उसी प्रकार, शायद, यह बताना भी असम्भव है कि अधिनियममें यह विष कहाँ व्याप्त है। किन्तु किसी भी आत्माभिमानी एशियाईके लिए पूराका-पूरा अधिनियम, निःसन्देह, विषसे भरा हुआ है और ऊपर बताई हुई छोटी-छोटी बातोंको एक साथ मिलाकर देखनेसे यह तथ्य बिलकुल साफ हो जाता है। इस अधिनियमके सामान्य प्रभावको केवल अनुभव किया जा सकता है, उसे शब्दोंमें व्यक्त नहीं किया जा सकता; और इसीलिए जनताने जिस भयंकर भावनाको अनजाने ही, किन्तु सचमुच, सदा अनुभव किया है उसको प्रकट करने के लिए प्रतीकोंका उपयोग किया है। इस अधिनियमके प्रशासनके लिए किये गये प्रयत्नोंके सिलसिलेमें जो कुछ घटित हुआ—उदाहरणार्थ, करीम जमालपर व्यर्थ ही मुकदमा चलाना, प्राथियोंकी गुप्त जाँच करना, भारतीय पुजारीके मुकदमे में चौंका देनेवाले रहस्योद्घाटन—[१]वह भारतीय जनता द्वारा अपनाये गये दृष्टिकोणको भयंकर रूपसे पुष्ट करता है और उसे सर्वथा उचित ठहराता है।

  1. देखिए पृष्ठ १३६, १४६, ३५२-५६।