वास्तव में यह कानून एशियाई और गोरोंके बीचका युद्ध है। गोरे कहते हैं, "हम एशियाइयोंको केवल यंत्रके समान अपनी गधा-मजूरी करवाने के लिए ही रखेंगे।" भारतीय लोग ट्रान्सवालमें कानूनका विरोध करके कहते हैं, "हम रहेंगे, तो स्वतंत्र मर्दके रूपमें और सामान्य व्यवहारमें बराबरीवालोंके रूपमें रहेंगे?" वास्तवमें कानूनका मतलब यही है। ऐसी लड़ाईमें बलवानसे टक्कर लेकर जीतना कठिन और सरल दोनों है। कठिन इसलिए कि बड़ी मुसीबत उठानी पड़ती है। सरल इसलिए कि मनुष्य देशकी भलाईके लिए, समाजके कल्याणके लिए कष्ट उठाने में सुख मानता है।
मैं बिना किसी हिचकिचाहटके कहूँगा कि जो मनुष्य यह प्रश्न करता है कि बलवान और सब प्रकारसे—धनसे, शरीरसे, शस्त्रसे समर्थ गोरोंके मुकाबलेमें मुट्ठीभर भारतीय कैसे जीतेंगे, उसको खुदापर पूरा भरोसा नहीं है। हम कैसे भूल जायेंगे कि—
जनम्या ते मरवा माट हिमत नहीं हारो,
समरथ छे मालिक साथ, रहम करनारो।
फिर, समर्थ होनेपर भी जब कोई अत्याचार करता है तब क्या होता है यह हमें बताया गया है:
कहा मनसूर खुदा मैं हूँ यूँ ही कहता था आलम को।
गया सूली पै चढ़नेको, तेरा दुश्वार जीना है।
इस लड़ाई में हमारी जीतके लिए एक ही शर्त है, सो यह कि हमारी हिम्मत सच्ची होनी चाहिए। हमारी मुसीबत उठानेकी शक्तिरूपी तलवार लकड़ीकी नहीं, बल्कि पानी चढ़ी फौलाद की होनी चाहिए।
इंडियन ओपिनियन, ३०-११-१९०७
३०७. हमारा परिशिष्ट
श्री अमीरुद्दीन फजंदारका स्वदेश लौटनेका प्रसंग आया इसलिए [भारतीय राष्ट्रीय] कांग्रेसके प्रतिनिधिकी बात चली थी। श्री अमीरुद्दीनने शुरूसे ही कानूनके खिलाफ चुस्तीसे जोश बताया था। इसलिए जब उनके स्वदेश जानेकी बात हुई तब उनसे कुछ मित्रोंने पूछा कि वे स्वयं प्रतिनिधि बनेंगे या नहीं। श्री अमीरुद्दीनने तुरन्त ही बीड़ा उठा लिया। वे यह कह कर गये हैं कि भारतमें पहला काम वे यही करेंगे। इस बार हम उनका चित्र प्रकाशित कर रहे हैं।
श्री अमीरुद्दीनकी आयु छत्तीस वर्ष है। उनके मातापिता जमींदार थे। इसीलिए उनका आस्पद फजंदार है। वे प्रसिद्ध झटाम परिवार के हैं। सन् १८८८ में पहले-पहल ट्रान्सवाल आये तब अहमद कासिम कमरुद्दीनकी प्रसिद्ध पेढ़ीमें मुंशीके रूपमें बहाल हुए। १८९३ तक उनके यहाँ नौकरी करने के बाद उन्होंने अपना व्यापार शुरू किया। उनकी पेढ़ीका नाम है