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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रकार, जो भारतीय कई सालसे यहां रह रहे हैं उन्हें, रवाना होते समय, ऐसे प्रमाणपत्र पाना कठिन होता है। संवाददाता यह भी लिखता है कि जब ऐसे प्रमाणपत्र दिये भी जाते हैं तब उनकी मियाद केवल एक सालकी होती है। इससे अगर कोई भारतीय अपने अंगीकृत देश शुभाशा अन्तरीपके उपनिवेशमें प्रमाणपत्रमें दी गई तारीखके एक दिन बाद भी लौटता है, तो वह वर्जित प्रवासी बन जाता है। इस प्रकारकी प्रणालीको भारतीयोंको बिना कोई मुआवजा दिये केपसे बाहर निकालनेके लिए जानबूझकर किये गये क्रूर प्रयत्नके सिवाय और क्या कह सकते हैं? इसका इलाज बहुत कुछ केपके भारतीयोंके हाथ में ही है। और हम वहाँकी विभिन्न संस्थाओंको आगाह करते हैं कि अगर ब्रिटिश भारतीयोंपर यह आसन्न संकट आया और अगर पाँच साल बाद उन्होंने यह पाया कि केपमें बहुत कम भारतीय बचे हैं, तो समाजके सामने इसके लिए उन संस्थाओंको ही जिम्मेदार समझा जायेगा। हम अपने संवाददाताको सलाह देना चाहेंगे कि वे तबतक बराबर केप टाउनकी भारतीय संस्थाओं को आगाह करते रहें जबतक वे अपनी स्पष्ट जड़ताको त्यागकर सक्रिय न हो जायें।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ८-६-१९०७

१२. एशियाई पंजीयन अधिनियम[१]
भयानक विषमता

जब कि भारतीय एशियाई पंजीयन अधिनियमके सामने न झुकनेका अपना पक्का इरादा प्रकट कर रहे हैं, यह मुनासिब है कि उसके बारेमें उनके एतराजोंको भी समझ लिया जाये। इसलिए मैं यहाँ समानान्तर स्तम्भोंमें यह दिखाना चाहता हूँ कि उनकी आज क्या हालत है और नये कानूनके अन्तर्गत क्या हो जायेगी।

इस समय नये कानूनके अन्तर्गत
१. मलायी लोग सन् १८८५ के कानून ३ के अधीन हैं। १. वे नये कानूनसे मुक्त कर दिये गये हैं। बहुत-से भारतीयोंकी पत्नियाँ और सम्बन्धी मलायी हैं। ऐसे भारतीय जब अपने मलायी सम्बन्धियोंसे मिलेंगे तब उनकी क्या दशा होगी, यह कहनेकी नहीं, स्वयं ही अनुमान करनेकी बात है।
२. प्रत्येक एशियाई, जिसके पास प्रामाणिक रूपसे प्राप्त अनुमतिपत्र है, ट्रान्सवालका पूर्ण और वैध नागरिक है। २. वह इस अधिकारसे वंचित हो जाता है, और नया पंजीयन प्रमाणपत्र पानेका अधिकार प्राप्त करनेके लिए उसपर यह सिद्ध करनेका भार डाल दिया जाता है कि उसका बाकायदा प्राप्त अनुमतिपत्र धोखाधड़ीसे नहीं लिया गया।
  1. यह 'विशेष लेख' के रूपमें प्रकाशित हुआ था। जिस रूपमें यह अधिनियम अन्ततः पास हुआ था उसके लिए देखिए परिशिष्ट १।