३४१. बहादुर स्त्रियाँ[१]
इंग्लैंडकी स्त्रियोंने हद कर दी है। भारतीय समाजकी लड़ाई जब ट्रान्सवालके खूनी कानूनके खिलाफ शुरू हुई तब इंग्लैंडकी स्त्रियोंकी मताधिकारकी लड़ाईको चले कई महीने बीत चुके थे। उन स्त्रियोंकी लड़ाई अभी चालू है और वे जरा भी थकी नहीं हैं। उनको बहादुरी और धीरजके सामने ट्रान्सवालके भारतीयों की लड़ाई कुछ भी नहीं है। इसके अलावा इंग्लैंडकी स्त्रियोंको तो बहुत-सी स्त्रियोंके भी खिलाफ जूझना पड़ता है। मताधिकार माँगनेवाली स्त्रियोंसे न मांगनेवाली स्त्रियोंकी संख्या बहुत ज्यादा है। इतना होनेपर भी वे मुट्ठीभर स्त्रियाँ हार नहीं मान रही हैं। रोज-ब-रोज वे जितनी ठोकरें खाती हैं उनकी ताकत उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। उनमें से बहुत-सी जेल जा चुकी हैं। घृणित और नामर्द मर्दोकी ठोकरों और पत्थरोंकी मार ये स्त्रियां खा चुकी हैं। पिछले सप्ताह तार था कि उन्होंने अपनी लड़ाईको और भी व्यापक बनाने का निर्णय किया है। स्त्रियों या उनके पतियोंको सरकारको मकान आदिके कई कर देने होते हैं। यदि कर न दें तो उनका माल नीलाम किया जा सकता है और जेलमें भी जाना पड़ता है। अब स्त्रियोंने निर्णय किया है कि "जबतक हमें अपने अधिकार नहीं मिलते तबतक हम कर वगैरा नहीं देंगी, बल्कि अपना माल नीलाम होने देंगी और जेल जायेंगी।"
यह बहादुरी और धैर्य ट्रान्सवालके भारतीय तथा सारे भारतीय समाजके लिए आदर्श है। बिना परवानेके व्यापार करने के कारण यदि नेटालके भारतीयोंका माल नीलाम हो जाये तो वह उन्हें भारी मालूम होगा। किन्तु इस प्रकार सोचनेवाले यह नहीं समझते कि बहुत लोगोंका माल सरकार नीलाम नहीं कर सकती। और नीलाम करे भी तो क्या हुआ? स्त्रियाँ मताधिकार जैसे हकके लिए अपनी जायदाद कुर्बान कर देती हैं तब हम जीविकाके लिए लड़ते हुए मोहके कारण लड़ाईमें इतना कष्ट भी नहीं सहन कर सकते? स्त्रियोंकी लड़ाई कई वर्ष चलेगी; परन्तु वे बिना हारे या बिना थके लड़ती रहेंगी। आज लड़नेवाली स्त्रियाँ उस अधिकारका उपयोग नहीं कर पायेंगी, फिर भी ऐसा मानकर कि अगर वह बादकी पीढ़ीको मिले, तब भी हमें ही मिलने जैसा हुआ, वे सत्यके आधारपर जूझ रही हैं। भारतीयोंको भी इसी दृष्टिसे लड़ना चाहिए।
इंडियन ओपिनियन, २८-१२-१९०७
- ↑ देखिए "इंग्लैंडकी बहादुर नारी", पृष्ठ ६५।