दृष्टिसे नहीं, बल्कि इस दृष्टिसे इसमें भाग लेंगे कि जीवनके एक ऐसे सिद्धान्तको स्पष्ट करना है जिसे, संसारके सर्वश्रेष्ठ विचारों का बल प्राप्त होनेपर भी, बहुत कम समझा जाता है, और उससे भी कम व्यवहारमें लाया जाता है।
इस प्रतियोगिताकी शर्तें नीचे लिखे अनुसार हैं:
(१) निबन्ध साफ कागजके एक ही तरफ लिखा होना चाहिए। टाइप किया हो तो और अच्छा। हस्तलिपिपर प्रतियोगीका नाम नहीं होना चाहिए।
(२) वह चार परिच्छेदों में विभक्त किया जा सकता है और "इंडियन ओपिनियन" के दस स्तम्भोंसे अधिकका नहीं होना चाहिए।
(३) उसमें थोरोके उच्च साहित्य "सविनय अवज्ञाका धर्म", टॉल्स्टॉयकी कृतियाँ, विशेषकर, "स्वर्गका राज्य आपके अन्दर है", की व्याख्या होनी चाहिए; उनमें 'बाइबिल ' तथा अन्य धर्म-ग्रंथोंके प्रमाण और उदाहरण और इस प्रश्नपर "सुकरातकी सफाई" का भी प्रयोग होना चाहिए। इस सिद्धान्त के समर्थनमें आधुनिक इतिहासके उदाहरण भी देने चाहिए।
(४) यह सम्पादक, इंडियन ओपिनियन, फीनिक्स, नेटालके नाम भेजा जाना चाहिए और इस मासकी ३० तारीख तक पहुँच जाना चाहिए।[१]
(५) प्रबन्धकोंको अधिकार होगा कि प्राप्त लेखोंमेंसे जिसे भी चाहें प्रकाशित करें, और उसका अनुवाद करें; और यदि कोई भी उपर्युक्त न प्रतीत हो तो सबको अस्वीकार कर दें।
- ↑ उक्त घोषणा निम्नलिखित परिवर्धन के साथ ३०-११-१९०७ के इंडियन ओपिनियनमें दोहराई गई थी; "पूज्यपाद डॉ॰ जे॰ लैंडो, पीएच॰ डी॰ (वीएना) एम॰ ए॰ (केप) ने कृपापूर्वक इसका निर्णायक होना स्वीकार कर लिया है। इसके लिए जो समय दिया गया था वह बजाय ३० नवम्बरके, जैसा कि पहले घोषित किया गया था, ३१ दिसम्बर तक बढ़ा दिया गया है। डॉ॰ लैंडो चाहते हैं कि यह बात अच्छी तरह समझ ली जाये कि इसका निर्णय करने में वे "सत्याग्रह" के सिद्धान्तके राजनैतिक प्रयोगके गुण-दोषके विवेचनमें नहीं पड़ेंगे। उनका कर्तव्य पूर्णतया प्राप्त निबन्धोंके साहित्यिक और यथार्थ मूल्यांकन तक ही सीमित रहेगा।" किन्तु उनके इनकार करनेपर उन निबन्धोंको केन्द्रीय बपतिस्मा गिर्जाके पादरी पूज्यपाद जे॰ जे॰ डोफने देखा और जनवरी १७, १९०८ को उनपर अपना निर्णय दिया; देखिए इंडियन ओपिनियन, २५-१-१९०८।