(१) वे एशियाई, जो उपनिवेशके औपनिवेशिक सचिवको यह सन्तोष दिला सकें कि उनके रहन- सहनका तरीका यूरोपीय विचारोंके अनुसार है, अपने नौकरों सहित बस्तियों के बाहर रहने दिये जायें; किन्तु उनको बस्तियोंके बाहर व्यापार न करने दिया जाये बशर्ते कि वे (२) के अन्तर्गत न आते हों;
(२) जो एशियाई युद्धसे पूर्व बस्तियों के बाहर अपना व्यवसाय जमा चुके थे, उनको न छेड़ा जाये;
(३) उक्त दो अपवादों के अतिरिक्त सब एशियाइयों के लिए बस्तियों में व्यापार करने और रहनेका नियम हो; एवं उनके लिए बाहर जमीन खरीदना निषिद्ध हो, यह व्यवस्था उस जमीनपर लागू न हो जो अलग कर दी गई है और धार्मिक कार्योंके लिए प्रयुक्त होती है;
(४) ट्रान्सवालमें आनेवाले सब एशियाई, जबतक उनको विशेष रूपसे मुक्त न किया जाये, ३ पौंड देकर पंजीयन प्रमाणपत्र ले;
(५) यदि ऊपर बताया गया प्रवासी कानून पास न हो तो फेरीवालोंको परवाने देनेपर कोई रोक न लगाई जाये।
इसके उत्तर में उपनिवेश मन्त्रीने उन ब्रिटिश भारतीयोंमें, जो इस समय ट्रान्सवालके अधिवासी हैं, और जो भविष्य में आयेंगे, अन्तर किया। उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्यकी रक्षाके लिए आवश्यक बुद्धि-संगत सावधानियों के अतिरिक्त अन्य सब कारवाइयोंकी निन्दा की और यह निर्देश किया:
" इस समय देशमें ब्रिटिश भारतीयोंकी संख्या अपेक्षाकृत कम है और प्रवासपर प्रस्तावित प्रतिबन्धों के अन्तर्गत कम होती जायेगी; इसलिए उनसे आशंकित व्यापारिक स्पर्धा प्रस्तावित कानूनको बनानेका पर्याप्त कारण नहीं मानी जा सकती। महामहिम सम्राट्की सरकारने भूतकालमें लगातार यह प्रयत्न किया है कि उसके विचार इस भयसे प्रभावित न हों। इसके विपरीत उसने इस सम्बन्ध में पिछले दक्षिण आफ्रिकी गणराज्यकी नीति और उसके कानूनोंके विरुद्ध साम्राज्य और सभ्य संसारके सम्मुख बारबार विरोध किया है। दरअसल वे अंशत: ही लागू किये गये थे। किन्तु अब महामहिम सम्राट्की सरकारसे उनको केवल कड़ाई से लागू करने की माँग ही नहीं की जा रही है, बल्कि कानून द्वारा सर्वोच्च न्यायालयके उस निर्णयको भी रद करने के लिए कहा जा रहा है जिससे ब्रिटिश भारतीयोंको वे अधिकार दिये गये हैं जिनके लिए महामहिम सम्राट की सरकारने अत्यन्त संघर्ष किया है. महामहिमकी सरकार यह मानती है कि अधिवासी ब्रिटिश भारतीयोंपर ऐसी निर्योग्यताएँ लागू करना, जिनके विरुद्ध हमने आपत्ति की थी और जिन्हें, यदि ठीक व्याख्या करें तो, पिछले दक्षिण आफ्रिकी गणराज्यने भी उनपर लागू नहीं किया था, हमारी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। इस सरकारको इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जब यह बात ध्यानमें आयेगी तो उपनिवेशका लोकमत इस माँगफा समर्थन करेगा जो प्रस्तुत की गई है।
इसलिए दूसरे प्रस्तावित अध्यादेशसे, जो १८८५ के कानून ३ का स्थान लेगा, उनके बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेके अधिकारों में हस्तक्षेप न होना चाहिए जो इस समय देश में हैं…। जमीन खरीदने के प्रश्नके सम्बन्धमें, जिन ब्रिटिश भारतीयोंको बस्तियोंसे बाहर रहनेका अधिकार है, उनको कमसेकम उन स्थानों में जायदाद लेनेका अधिकार होना चाहिए जिनपर व्यवसायके निमित्त उनका कब्जा है।"
उन्होंने दूसरे प्रश्न अर्थात् भावी प्रवासियोंके प्रश्नपर कहा:
"महामहिम सम्राट्की सरकारको अत्यन्त खेद है कि साम्राज्य के भीतर ब्रिटिश भारतीयों के स्वतन्त्र आवागमनको रोकने की आवश्यकता है, इसलिए वह अनुभव करती है कि वह ट्रान्सवालकी विधान परिषद में उन कानूनों के आधारपर प्रवासपर प्रतिबन्ध लगानेका कानून अभी पेश करनेके बारेमें लगाई गई अपनी रोक वापस नहीं ले सकती।" यह निश्चित प्रतीत होता है कि जो लोग अब भी प्रस्तावित प्रवासी प्रतिबन्धक अध्यादेशकी हृदमें आते हैं, और वे बहुत कम होने चाहिए, वे निम्न वर्गके एशियाई न होंगे, और इसलिए ऐसे लोग न होंगे जिन्हें सफाईके ख्यालसे विशेष बस्तियोंमें रखा जाना जरूरी हो। मेरी राय में जबतक यह सिद्ध न हो कि प्रवासी प्रतिबन्धक अध्यादेशसे प्रवासियोंकी बाद न्यूनतम