राजद्रोह एवं देशद्रोहके विरुद्ध नया अध्यादेश लागू कर दिया गया था। १९०३ के संशोधन के अनुसार उपनिवेश में जो लोग आये उन सबके लिए परवाने लेनेका नियम था। उसकी आवश्यक शर्त थी कि ये परवाने उन नागरिकोंको नहीं दिये जायेंगे जो राजभक्तिकी शपथ न ले सकें। इससे पर्याप्त रूपसे प्रकट हो जाता है कि अध्यादेशका उद्देश्य क्या था। किन्तु इस नये कानूनका प्रयोग भारतीय प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम के रूपमें किया गया। देशके इतिहास में पहली बार एक एशियाई विभागकी स्थापना की गई। परवाने देने में अनुचित कार्रवाई और भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप दो प्रधान अधिकारियोंपर मुकदमे चलाये गये और उसके बाद एशियाई विभाग भंग कर दिया गया। उसका काम मुख्य परवाना अधिकारीको सौंप दिया गया एवं अन्ततः एशियाई संरक्षक नामका एक अधिकारी नियुक्त कर दिया गया। १९०२ में उच्चायुक्तने उपनिवेश मन्त्रीको ट्रान्सवाल सरकारके कुछ विधिवत् प्रस्ताव तारसे भेजे। इनमें ये प्रस्ताव थे कि सत्र एशियाई, चाहे वे तब ट्रान्सवालमें रहते हों या बादमें प्रविष्ट हुए हों, पंजीयन प्रमाणपत्र लें और ये प्रमाणपत्र ३ पौंड देकर प्रति वर्ष नये कराये जायें; ऐसे पंजीकृत एशियाई, (यदि यूरोपीय मालिकके साथ न रहते हों तो) अपने लिए विशेष रूपसे व्यापार और निवासके निमित्त निश्चित की गई बस्तियों में चले जायें; शिक्षित और सभ्य एशियाई पंजीयनसे मुक्त हों, एशियाइयोंफो शहरी क्षेत्रोंमें वास्तविक जमीन-जायदाद खरीदने और रखनेका अधिकार हो। इन प्रस्तावोंका उत्तर उपनिवेश-मन्त्रीने यह दिया:
"इसका समर्थन करना असम्भव है, यह तो लगभग दक्षिण आफ्रिकी गणराज्यकी प्रणालीको जारी रखना होगा जिसके विरुद्ध महामहिम सम्राट्की सरकारने बार-बार इतनी जोरदार आपत्ति की थी।"[१]
१९०३ में ट्रान्सवाल-सरकारने भारतसे १०,००० कुली मँगानेके लिए कुछ प्रस्ताव किये जिसे भारत सरकारने इस शर्त पर मान लेनेका वचन दिया कि ट्रान्सवालमें इस समय जो भारतीय रहते हैं उनको प्रभावित करनेवाली वर्तमान निर्योग्यताएँ हटा दी जायें।
इसी वर्ष उच्चायुक्तने उपनिवेश मन्त्रीको एक अन्य खरीता भेजा और उसके साथ सरकारी नोटिसकी एक प्रति भी भेजी। नोटिस में कहा गया था कि सरकारने १८८५ के बोअरोंके बनाये गये कानून ३ की उस धाराको लागू करनेका निश्चय किया है जो एशियाइयोंको विशेष गलियों, मुहल्लों और बस्तियोंमें हटानेके सम्बन्धमें है, इनमें केवल एशियाई ही रह सकेंगे और व्यापार कर सकेंगे, एशियाइयोंको इन बस्तियों के अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें व्यापार करनेके परवाने न दिये जायेंगे; जिन एशियाइयों के पास युद्ध से पूर्व इन (एशियाई) बाजारोंके बाहर व्यापार करनेके परवाने थे, उनके परवाने उन्हीं शर्तोंपर उपनिवेशमें वे जबतक रहें तबतक नये किये जा सकते हैं; किन्तु वे हस्तान्तरित नहीं किये जा सकेंगे; शिक्षित और सम्मानित एशियाई इन सब प्रतिबन्धोंसे मुक्त होंगे। वर्तमान निर्योग्यताओंमें ये परिवर्तन, प्रत्यक्ष हैं, भारत सरकारको सन्तुष्ट करने और उसे ट्रान्सवालके सार्वजनिक फार्मो के लिए कुली मजदूर मँगानेकी मंजूरी देनेके लिए राजी करने के उद्देश्यसे किये गये थे। ट्रान्सवाल सरकारने इसके अतिरिक्त यह प्रस्ताव किया था कि प्रवासका नियंत्रण केप और नेटालमें लागू कानूनोंसे मिलते-जुलते कानून द्वारा किया जाये और अधिनियम के अन्तर्गत लागू की गई शिक्षा परीक्षामें भारतीय और यूरोपीय भाषाएँ स्वीकार की जायें। यह सुझाव भारत सरकारने भेजा था। किन्तु ट्रान्सवाल सरकारने आगे विचार करनेपर अपना यह अंतिम प्रस्ताव वापस ले लिया और समय आनेपर उसका विरोध किया। उसने विकल्पके रूपमें यह सुझाव दिया:
(क) केप और नेटालके अधिनियमोंके आधारपर प्रवासी प्रतिबन्धक कानून बनाया जाये जिसमें अन्य बातोंके साथ-साथ भावी प्रवासियोंके लिए शिक्षा परीक्षाकी व्यवस्था हो; किन्तु इसके लिए भारतीय भाषाएँ स्वीकार न की जायें;
(ख) भारतीयों के सम्बन्धमें सरकार के नोटिस ( १९०३ का ३५६ ) के आधारपर, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है, एक कानून बनाया जाये। इसमें यह व्यवस्था हो:
- ↑ श्री लिटिलटनका पूर्व-उल्लिखित वाइकाउंट मिलनरको पत्र।