भूमिका
इस खण्डमें १९०७ के जूनसे दिसम्बर तक के सात महीनोंकी सामग्री दी गई है। ट्रान्सवाल एशियाई पंजीयन अधिनियम, जो उपनिवेश मन्त्री द्वारा अस्वीकृत अध्यादेशके स्थानमें बनाया गया था, जैसा हम देख चुके हैं, २१ मार्चको ट्रान्सवाल संसद द्वारा एक ही दिनकी बैठकमें पास कर दिया गया था। उसपर ८ जूनको सम्राटने स्वीकृति दे दी थी और वह १ जुलाईको लागू कर दिया गया था। इस 'खूनी कानून' के विरुद्ध भारतीय समाजका संघर्ष, जो पुराने एम्पायर नाटकघरमें ११ सितम्बर १९०६ को एक विराट सार्वजनिक सभामें आरम्भ किया गया था, अब अनाक्रामक प्रतिरोध समिति द्वारा चलाया जान लगा। यह समिति इस कार्य के लिए विशेष रूपसे बनाई गई अस्थायी संस्था थी।
गांधीजीने कानून बननसे पहले ट्रान्सवालके भारतीयोंकी स्थितिकी तुलना उसके बनने के बादकी स्थितिसे करते हुए कहा था: "सारा ट्रान्सवाल हो एक जलोल जेलखाना बन जायेगा। नया कानून एशियाइयोंको जिस दुःखद स्थितिमें ला पटकता है, वह सिर्फ उन लोगोंको ही नहीं दिखाई दे सकती, जो शक्तिके मदमें चूर है।" (पृष्ठ १९)। कानूनने भारतीयोंपर जो कलंक लगा दिया है उसे उसके अन्तर्गत बने विनियम मिटा नहीं सकते। यह कानून इसलिए घृणित नहीं था कि इसके अन्तर्गत अँगुलियोंके निशान लिये जाते बल्कि इसलिए था कि वह भारतीयोंको ऐसा करने के लिए बाध्य करता था और उसका इरादा जानबूझकर समाजका अपमान करना था। वह "उनके पौरुषके लिए अपमानजनक और उनके धर्मके हकमें घृणित" था। (पृष्ठ २१५)। गांधीजीने प्रस्ताव किया कि यदि कानून रद कर दिया जाये तो वे समझौतेके रूपमें स्वेच्छया पंजीयन मान लेंगे। यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया और इसलिए इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहा कि "वे उस उच्चतर धर्मके आगे सिर झुकायें जो मानवजातिको आत्मसम्मान और सचाई तथा गम्भीरतासे की हुई घोषणाओंका आदर करनेका आदेश देता है।" (पष्ठ २३६)। इस उच्चतर धर्मकी शरण लेनके लिए गांधीजीने ट्रान्सवाल सरकारके 'खूनी कानून का अनाक्रामक प्रतिरोध करनेका परामर्श दिया।
किन्तु गांधीजीके लिए अनाक्रामक प्रतिरोध केवल प्रभावकारी राजनीतिक कार्रवाईका एक रूप नहीं था, जैसा कि वह मताधिकारके लिए संघर्ष करनेवाली ब्रिटिश महिलाओंके लिए था, जिनका प्रशंसात्मक उल्लेख गांधीजीने दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंमें आत्म-सम्मानका भाव भरने और साहस उत्पन्न करनेका प्रयत्न करते हुए अनेक बार किया था। उन्होंने अनाक्रामक प्रतिरोधमें नैतिक और आध्यात्मिक तत्त्वका समावेश किया और थोरोके 'सविनय अवज्ञा' सम्बन्धी प्रबन्धमें अपने सिद्धान्तोंका समर्थन देखकर उसे अंग्रेजी और गुजराती दोनोंमें संक्षिप्त किया। किन्तु उन्होंने 'अनाक्रामक प्रतिरोध' शब्दोंको अपर्याप्त और भ्रामक पाया। उन्होंने कहा कि भारतीयोंका आन्दोलन “वस्तुतः प्रतिरोध नहीं, बल्कि सामूहिक कष्ट-सहनकी नीति है।" (पृष्ठ ६७)। कानूनके विरोधका परिणाम होता जुर्माना। लेकिन भारतीय जुर्माना देनके बजाय जेल जानेको तैयार थे। अगर परवाने नहीं मिलते तो वे बिना परवाने व्यापार करते। भारतीय कानून तोड़नके परिणाम जानते थे और उन्हें “शान्तिपूर्ण गौरव और समर्पणके भावसे' (पृष्ठ ८८) सहन करनेको तैयार थे। गांधीजी चाहते थे कि अनाक्रामक