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प्रतिरोध, जिस रूपमें उन्होंने उसकी कल्पना की थी, धार्मिक शिक्षाका साधन बन जाये। यदि सत्य और न्यायकी मांग पूरी करने के लिए मानव-निर्मित कानूनको भंग करना पड़े तो वह सत्यपर ईमानदारीसे आरूढ़ रहकर किया जाना चाहिए। एक अनुचित कानूनको भंग करते हुए स्वयं भारतीय समाजको अपनी व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवनकी अनेक स्पष्ट बुराइयोंसे मुक्त होनेका प्रयत्न करना चाहिए और लगातार ईश्वरीय कानूनके आदेशोंके अनुसार जीवन बिताना सीखना चाहिए।

गांधीजी अपने आन्दोलनके आध्यात्मिक तत्त्वपर जो जोर देना चाहते थे वह 'अनाक्रामक प्रतिरोध' शब्दोंसे स्पष्ट नहीं होता था। वे यह भी अनुभव करते थे कि भारतीयोंको अपने आत्मसम्मानके लिए अपनी भाषाका उपयोग निपुणतासे करना आना चाहिए। इसलिए 'इंडियन ओपिनियन' ने उन शब्दोंका कोई उपयुक्त भारतीय समानार्थक शब्द बताने के लिए पुरस्कारकी घोषणा की। मगनलाल गांधीने 'सदाग्रह' शब्द सुझाया जिसे गांधीजीने बदलकर 'सत्याग्रह' कर दिया। यह एक उपयुक्त शब्द सिद्ध हुआ, क्योंकि यह गांधीजीकी जीवन-भरकी सम्पूर्ण सत्यकी खोजका प्रतीक बन गया।

संघर्षके फलितार्थों और महत्त्वको पूरी तरहसे जानते हुए, गांधीजी 'इंडियन ओपिनियन' में सप्ताह-प्रति-सप्ताह अपने आन्तरिक विचारोंको उड़ेलते गये। इस प्रकार 'इंडियन ओपिनियन' "भारतीय समाजके तत्कालीन इतिहासका सच्चा दर्पण बन गया", ('सत्याग्रह इन साउथ आफ्रिका', अध्याय २०)। उन्होंने संघर्षके प्रत्येक अंगकी, उसके कारणों और परिणामोंकी, उसकी प्रविधियों और कार्य-विधियोंकी एवं असफलता और सफलताकी सम्भावनाओंकी, विशेष रूपसे गुजराती लेखोंमें, विस्तारसे चर्चा की। उन्होंने ईसा और थोरो एवं प्राचीन भारतीय वीर-गाथाओंमें आये हुए बुराईका प्रतिरोध करनेवाले वीरोंसे ही प्रेरणा लेनेका प्रयत्न नहीं किया, बल्कि अपने समयकी मताधिकार आन्दोलन करनेवाली महिलाओं, ईसाई रूढ़ि-विरोधियों, सिन-फेन दलके सदस्यों और बोअरोंसे भी प्रेरणा ली थी।

पंजीयन कार्यालयोंपर धरना विधिवत् संगठित किया गया; वह शान्तिपूर्ण और सब प्रकारके 'रोष प्रदर्शन से मुक्त था। उसमें कटु भाषासे वैसे ही दूर रहना था जैसे शारीरिक बल-प्रयोगसे। जो लोग एशियाई अधिनियमके जुएको टालना चाहते थे, उन्हें इस बातकी भी फिक्र करनी थी कि वे अपने विरोधियोंपर नासमझी-भरी धौंस और धमकियोंके रूपमें कहीं उससे भी भारी जुआ न डाल दें (पृ० २५८)। धरना प्रभावकारी था-पंजीयन कार्यालय नगर-नगर गया, किन्तु बहिष्कारके कारण बेकार रहा। समाजके पांच प्रतिशतसे कम लोगोंने 'गुलामीका चिट्ठा' लिया, यद्यपि पंजीयनकी अवधि अनेक बार बढ़ाई गई। गद्दारोंके, जो 'पियानो बजानेवाले' कहे जाते थे, नाम 'इंडियन ओपिनियन' में छापे गये। इसका उद्देश्य जितना कायरोंको लज्जित करना था उतना ही दूसरोंको चेतावनी देना भी था। भय दिलानेकी अपेक्षा आत्मसम्मान अधिक जगाया जाता था। जब भारतीयोंके एक दलने आत्म-समर्पणका प्रस्ताव पास किया तब गांधीजीने ४,५०० से अधिक भारतीयोंके हस्ताक्षरोंसे एक "भीमकाय प्रार्थनापत्र" देनेका विचार किया और उसको कार्यान्वित किया। इससे स्पष्ट हो गया कि भारतीयोंका बहत बड़ा भाग काननका विरोधी था।

गांधीजीने ब्रिटिश भारतीय संघ, हमीदिया इस्लामिया अंजुमन और चीनी संघकी अनेक सभाओं में भाषण दिये। वे यूरोपीयोंके छोटे-छोटे समूहोंमें बोले और खुले मैदानमें