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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खानेसे" काम है। "गिननेका काम" भले ही और सब करते रहें। हम यह मिसाल याद रखें कि "धनीको ढक्कनमें दिख जाता है, पड़ोसीको आकाशमें भी नहीं दिखता" । [१]

दस अँगुलियाँ बनाम दो अँगूठे

पाठक: दस अँगुलियोंकी छाप देनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं है, यह तो अब स्पष्ट हो गया। परन्तु मुझे ऐसा लगता है कि यदि दस अँगुलियोंके बिना काम चल सकता था तो फिर दो अँगूठोंसे क्यों नहीं चला लिया गया?

सम्पादक: यह समझने योग्य बात है। दुनियामें यह नियम दीख पड़ता है कि सच्चे शूर---शालीन लोग---केवल अपने सही उद्देश्यके लिए लड़ते हैं---जान देते हैं। वह प्राप्त हो जानेपर झुक जाते हैं। इससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है। एरण्डका पेड़ ज्यों-ज्यों बढ़ता है त्यों-त्यों पोला होता जाता है और जरा-सा झुकाया कि टूट जाता है। बरगदका पेड़ ज्यों-ज्यों बढ़ता है त्यों-त्यों मजबूत होता है और उसकी जटाएँ झुकती जाती हैं और दुबारा धरतीमें जाकर उगती हैं और फैलती हैं। एरण्डके नीचे कोई छाँहके लिए नहीं बैठता। परन्तु बरगदके वृक्षके नीचे हजारों मनुष्य छाँह पा सकते हैं, और पाते हैं। भारतीय कौमने समझौतेके सम्बन्धमें वैसा ही किया है। संघर्षका हेतु कानून था; वह रद हो गया इसलिए दूसरी बातोंपर झुकनेमें शालीनता है। सरकार कहती है कि "आप लोग अँगुलियोंके लिए नहीं लड़ रहे थे; तब फिर उसके लिए हठ क्यों करते हैं?" वास्तवमें इस प्रश्नका उत्तर हमारे पास नहीं है। श्री ईसप मियाँ आदि दस अँगुलियोंकी छाप दें इससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है। अपने सार्वजनिक भाषणमें भी श्री स्मट्स यह बात कह चुके हैं। फिर हम लोगोंको सरकारसे अभी बहुत-कुछ लेना है। यह न समझें कि कानून रद हो गया, अर्थात् सब-कुछ मिल गया। गलत खुशामद हमें नहीं करनी है, परन्तु अपना स्वाभिमान बनाये रखकर सरकारको प्रसन्न कर सकें तो यह हमारा कर्तव्य है। यह कानून हटेगा लेकिन इसके बदलेमें क्या होगा? दूसरे कानून किस प्रकारके होंगे? ये सब बातें भारतीयों द्वारा किये जानेवाले अगले तीन महीनोंके बरतावपर निर्भर होंगी। इन कारणोंसे दस अँगुलियोंकी छाप देना उचित है। फिर भी सभीके अँगुलियोंकी छाप देनेकी कोई बात नहीं है। जो नहीं देंगे वे भी अगर वास्तवमें ट्रान्सवाल-निवासी हुए तो उनका पंजीयन होगा। लेकिन अब सच्चा स्वाभिमान दस अँगुलियोंकी छाप देनेमें है। इसीलिए हमने अँगुलियोंकी छाप देनेकी सलाह दी है। हम यहाँतक मानते हैं कि जो भारतीय जिद करके दस अँगुलियोंकी छाप नहीं देगा वह बहुत हद तक नासमझ कहलायेगा। हकीकत यह है कि प्रवासी कानूनके अन्तर्गत कुछ गोरी महिलाओंको भी अँगुलियोंकी छाप देनी पड़ेगी। इस हालतमें दो अँगूठे और दस अँगुलियोंका वाद-विवाद करनेसे हमारा गौरव घटता है और हमारी गिनती बालकोंमें होती है।

पाठक: यह बात तो पूरी तरह समझमें आती है। परन्तु ट्रान्सवालसे बाहरके लोग, जिन्होंने भारतीयोंको बहुत सहायता दी है, कहते हैं कि "आप लोगोंने तो अपना स्वार्थ पूरा किया; अब और जगहोंपर जहाँ कोई दस अँगुलियोंकी बात जानता भी नहीं था वहाँ उनका चलन हो जायेगा।[२] श्री गांधी जैसे व्यक्ति दस अँगुलियोंकी छाप दे डालें तो फिर

 
  1. "घणीने ढांकणीमां सूझे अने पाडोशीने आभलामां पण न सूझे" ।
  2. रोडेशियामें सचमुच ही ऐसा हुआ। देखिए "रोडेशियाके भारतीय", पृष्ठ २५७-८।