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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

फिर इस वर्गमें शिक्षित समुदाय भी है। इस समुदायके खिलाफ हम नहीं बोले, क्योंकि शिक्षा--सच्ची शिक्षा-–सदैव सम्मान प्राप्त करेगी। यदि शिक्षित व्यक्तिको भी अँगुलियोंकी छाप द्वारा शिनाख्त देनी पड़े तो फिर अँगुलियोंकी बात शिनाख्तकी न रहकर जातिगत बन जायेगी। अतः शिक्षाका भेद तो सामान्यतः रहेगा ही।

प्राकृतिक वर्गोंके विरुद्ध कोई नहीं जा सकता। हमारी लड़ाई कृत्रिम वर्ग के विरुद्ध है। जिस वर्गका मापदण्ड अफसरोंके हाथमें रहता है, उसमें हम गुलामी देखते हैं। समझौतेके अनुसार जो वर्ग बनते हैं उनमें भी अफसरोंके हाथमें बात रहती है। फिर भी वे वर्ग निश्चित अवधिके लिए होते हैं इस कारण उनमें दोष नहीं जान पड़ता। शर्त यह है कि प्रमुख व्यक्ति उस छूटका लाभ न लें। यह छूट बनी रहे तो वह आभूषणके समान शोभा देगी। उसका लाभ बहुत-से भारतीय उठायेंगे तो वह बेकार हो जायेगी और हानिकर भी होगी, ऐसा हम मानते हैं।

मेमन लोगोंने वर्ग-भेदकी जो अर्जी दी थी वह अलग ढंगकी थी। उन्होंने कानूनको मानकर केवल अँगुलियोंके बारेमें वर्ग-भेदकी माँग की थी। वह तुच्छ माँग थी। फिर वह माँग सरकारकी ओरसे नहीं आई थी। उसमें तो याचना करने गये और मुँहकी खाई। इससे समझा जा सकता है कि उस माँग और इस वर्ग-भेदमें बहुत बड़ा अन्तर है। इस समय जो वर्ग बनाया गया है यदि प्रमुख व्यक्ति उसपर ढंगसे चलें तो गरीब लोग लाभ उठा सकेंगे। दरअसल बात यह है कि बड़ोंको गरीबोंका संरक्षक---ट्रस्टी---बनकर रहना चाहिए।

जनतासे क्यों नहीं पूछा?

पाठक: अब तो मुझे लगता है कि मेरे मनको लगभग पूरा सन्तोष हो गया है---यद्यपि मुझे अब भी दुबारा विचार करना पड़ेगा। अलबत्ता मनमें एक शंका रह जाती है। श्री गांधीने और श्री नायडूने अपनी खुदमुख्त्यारीसे हस्ताक्षर क्यों किये? वे लोग तो समझदार माने जाते हैं, फिर कौमसे बिना पूछे उसे बाँध दिया; क्या यह कोई बुद्धिमानीकी बात मानी जायेगी? यदि उन्होंने कौमपर छोड़ा होता तो मेरे मनमें ऊपरके जो प्रश्न पैदा हुए, वे भी पैदा न होते। ये लोग भूल तो नहीं कर बैठे हैं?

सम्पादक: इस प्रकारकी शंकाका आपके मनमें उठना ही यह जाहिर करता है कि हमारे सारे उत्तर आप पर्याप्त रूपसे नहीं समझे। प्रारम्भ में ही हमने आपसे कह दिया था कि कौम स्वेच्छया पंजीयनको तो स्वीकार कर चुकी थी। और सरकार उसी पंजीयनको मान लेनेके लिए कहे, तो उसमें कौमकी स्वीकृति लेनेकी बात नहीं बचती।

पाठक: परन्तु अँगुलियोंकी बात कौमने कहीं कबूल की थी?

सम्पादक: आपने अँगुलियोंकी बात फिर छेड़ दी? अँगुलियोंकी बात ही खटकती दीखती है? आप क्यों भूलते हैं कि लड़ाई अँगुलियोंकी नहीं थी। इसलिए जिसके वास्ते लड़ाई नहीं थी उसके सम्बन्धमें पूछनेकी क्या बात रह जाती है? इसके सिवा अँगुलियोंकी छाप देना स्वीकार कर लिया, यह भी कैसे कहा जा सकता है? कानूनमें जैसी अँगुलियाँ थीं वैसी उन्होंने स्वीकार नहीं की हैं। दस अँगुलियोंकी छाप दी जाये या नहीं यह तो उन्होंने कौमकी मुख्त्यारीपर छोड़ा है। दो अँगूठोंकी छाप ही जो देना चाहता है वह इतना देकर पंजीयन करवा सकता है। वे तो केवल सलाह दे रहे हैं कि दस अँगुलियोंकी छाप देनेमें कौमकी शान बढ़ती है; और स्वयं वे देंगे, ऐसा कहते हैं।