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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

"इसके अतिरिक्त देखिए, जब मैं इस राज्यका कर्मचारी था तब मेरे अधिकारीने मुझे जिस स्थानपर नियुक्त किया था उसमें मृत्युका भय था; फिर भी मैं उसपर दृढ़ रहा। अब जब मेरा अन्तःकरण मुझे एक ज्ञानको ग्रहण करनेके लिए कहे, तब यदि उसको मैं मृत्युके भयसे ग्रहण न करूँ या उसके सम्बन्धमें कुछ न कहूँ तो यह बात कितनी अजीब मानी जायेगी? यदि मैं मृत्युसे भय करूँ तो मैं अज्ञानी हूँ, मेरी इस मान्यतामें दोष आता है। और यदि अज्ञानी होते हुए मैं ज्ञानका दम्भ करूँ तो निस्सन्देह मुझपर अभियोग चलाया जाना चाहिए। मृत्यु-भय रखना ज्ञानका दम्भ करने के समान है, क्योंकि क्या कोई यह जान सका है कि मृत्युमें भय करने योग्य कोई बात है? हम यह क्यों न मानें कि मृत्यु मनुष्यके लिए सबसे अधिक लाभप्रद वस्तु है; जो मनुष्य मृत्युसे डरते हैं शायद वे यह समझते हैं कि वह सबसे बुरी वस्तु है। इस प्रकार हम जिसे जानते नहीं हैं, उसे जाननेका दम्भ करें तो इससे बड़ा अज्ञान अन्य क्या होगा? इन विषयोंमें अन्य व्यक्तियोंसे मेरा विचार भिन्न है। यदि मुझमें कोई बुद्धिमत्ता है तो वह यह माननेमें है कि मुझे मृत्युके सम्बन्धमें कोई ज्ञान नहीं है। इसलिए मैं अपने उस विषयके अज्ञानको नहीं ढँकता। किन्तु मैं अनीतिके मार्गपर चलना या वरिष्ठोंके उचित आदेशोंके विपरीत चलना बुरा मानता हूँ। इसलिए जिस बातको मैं उचित मानता हूँ उसको किसी प्रकारकी कायरताके कारण कभी छोडूँगा नहीं। इससे कदाचित् आप मेरे अभियोक्ताओंकी बात न मानकर यह कहें, 'सुकरात, इस समय हम तुमको दण्ड नहीं देते; किन्तु इसकी शर्त यह है कि जो कार्य तुम इस समय कर रहे हो उसको छोड़ दो। इसके बाद यदि तुम ऐसा करोगे तो तुमको निश्चित रूपसे मृत्यु-दण्ड दिया जायेगा।' तो मैं आपसे कहूँगा, 'हे एथेंसके लोगो! मैं आपका सम्मान करता हूँ। आपसे मुझे प्रेम है; किन्तु मुझे आपकी अधीनताकी अपेक्षा परमात्माकी अधीनता अधिक प्रिय है। और जबतक मुझमें प्राण और बल हैं, तबतक मैं अपना तत्त्वज्ञानका अभ्यास जारी रखूँगा और जो मुझे मिलेंगे एवं मेरी बात सुनेंगे, उनको इस प्रकारका बोध दूँगा: 'हे एथेन्सके श्रेष्ठ लोगो! आप इस प्रसिद्ध नगरके निवासी हैं। आप शक्तिशाली माने जाते हैं। आपकी गणना बुद्धिमानोंमें होती है। फिर भी आप धनिक बनना चाहते हैं। आप यह नहीं देखते कि धन प्राप्त करनेके लिए आप क्या-क्या करते हैं। आप पद और प्रतिष्ठा पानके लिए चिन्तित रहते हैं। क्या इसमें आपको लज्जा नहीं आती? आपको अपनी आत्मा, अपने ज्ञान और सत्यकी परवाह नहीं है । आप यह विचार नहीं करते कि आपकी आत्मोन्नति कैसे होगी।' यदि मेरे इस कथनपर कोई मुझसे यह कहें कि वे स्वयं तो अपनी आत्माकी परवाह करते हैं और सत्यकी सेवा करते हैं तो मैं उनको छोडूँगा नहीं। मैं फिर पूछूँगा कि वे यह सब किस प्रकार करते हैं? मैं उनकी परीक्षा लूँगा और तब उनको छोडूँगा। उनकी परीक्षा लेते समय यदि मुझे ऐसा प्रतीत होगा कि वे सत्यका दम्भ करते हैं, और वास्तवमें उनमें सत्य है नहीं तो मैं उन्हें दोषी ठहाराऊँगा और स्पष्ट रूपसे कहूँगा कि जो वस्तु संसारमें बहुत ही मूल्यवान है, उसका मूल्य उनके मनमें कुछ नहीं है और जिसका वास्तवमें कोई मूल्य नहीं है उसको वे मूल्यवान मानते हैं। मैं सभी लोगोंसे ऐसा ही व्यवहार करूँगा; फिर वे चाहे इस नगरके निवासी हों, या विदेशी, युवा हों या वृद्ध। आपसे तो मैं और भी जोर देकर यह बात कहूँगा, क्योंकि आप मुझे अधिक अच्छी तरह जानते हैं। आपके साथ मेरा सम्बन्ध अधिक है। आप विश्वास रखें कि मैं जो कुछ कहता हूँ वह प्रभुका आदेश है। मैं तो यह भी