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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

महानिद्रा समान हुई। हम निद्राको सुखरूप मानते हैं। तब मृत्यु, जो बड़ी निद्रा है, अधिक सुखरूप होनी चाहिए। अब यदि यह मानें कि मृत्युके बाद जीव एक स्थानसे दूसरेमें चला जाता है तब तो जहाँ मुझसे पूर्व मनुष्य मर कर गये हैं मुझे भी वहीं जाना होगा। उनकी संगतिमें मुझे शुद्ध न्याय मिलेगा। इसमें क्या बुराई है? जहाँ होमर गये हैं, जहाँ अन्य महात्मा गये हैं वहाँ यदि मुझे भी जाना पड़े तो मैं बहुत ही भाग्यशाली माना जाऊँगा। जहाँ अनुचित दण्ड-प्राप्त जीव गये हैं वहाँ पहुँचना मैं अपना सम्मान समझता हूँ।

यह तो आपको स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि नीतिमान मनुष्यको जीने या मरनेमें दुःख होता ही नहीं। ईश्वर उस मनुष्यका त्याग नहीं करता। सत्यवादीको सदा सुखी समझिए। इसलिए मुझे आज मरने और शरीरके जंजालसे छूटनेमें कुछ भी दुःख नहीं है। इसी कारण मुझे अपने दण्डदाताओं और आरोपकर्ताओंपर कोई रोष नहीं है। उन्होंने मेरा बुरा चाहा हो तो वे दोषके पात्र हैं; किन्तु मुझपर उनकी इच्छाका बुरा प्रभाव नहीं हो सकता।

अब मेरी अन्तिम माँग यह है कि जब मेरे बच्चे वयस्क हों तब यदि वे नीतिका मार्ग छोड़ें और सद्गुणोंकी अपेक्षा सम्पत्ति अथवा अन्य वस्तुओंको अधिक प्रिय मानें और उनमेंसे कोई अपने भीतर कोई सद्गुण न होनेपर भी अपने आपको बड़ा मानें तो जैसे मैंने आपको ऐसी बातोंके लिए उलाहना दिया है और सावधान किया है वैसे ही आप उन्हें दण्ड दें। यदि आप ऐसा करेंगे तो मैं यह मानूँगा कि आपने मुझपर और मेरी सन्तानपर कृपाका हाथ रखा है।

अब समय हो गया---मेरे मरनेका और आपके इस संसारमें रहनेका। किन्तु दोनोंमें से किसकी स्थिति अधिक अच्छी है, यह तो ईश्वर ही कह सकता है।

यह ऐतिहासिक घटना है अर्थात् सचमुच ऐसा हुआ था। जैसे सुकरातने अन्ततक नीतिका पालन किया और जैसे प्रेमी प्रेमिकाका आलिंगन करता है उस प्रकार मृत्युका आलिंगन किया, वैसा नीति-बल हमें और हमारे पाठकोंको प्राप्त हो, यही हम प्रभुसे प्रार्थना करते हैं। हम चाहते हैं कि पाठक भी प्रभुसे ऐसी ही प्रार्थना करें। हम सबसे कहना चाहते हैं कि वे सुकरातके वचन और जीवनपर बार-बार विचार करें।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ९-५-१९०८