१४९. पत्र: एम० चैमनेको[१]
[ जोहानिसबर्ग ]
मई २६, १९०८
उपनिवेश कार्यालय प्रिटोरिया
प्रिय महोदय,
श्री गांधीने मुझे सूचित किया है कि सरकार स्वेच्छया पंजीयनको एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत वैध बनाना और उस अधिनियमको स्वेच्छया पंजीयन करानेवालोंपर पूरी तरह लागू करना चाहती है। इसमें केवल अपवाद यह होगा कि उसका अबतक पालन न करनेके कारण वे दण्डके पात्र न होंगे।
श्री गांधीने मुझे और मेरे संघको समझौतेका ऐसा अर्थ नहीं समझाया था। उन्होंने गत ३० जनवरी, गुरुवारकी रातको और गत ३ फरवरीको जनरल स्मट्सके पाससे लौटकर भारतीयोंकी एक विशाल सभामें जोर देकर यह आश्वासन दिया था कि यदि एशियाई समाज स्वेच्छया पंजीयन करानेसे सम्बन्धित समझौतेकी अपनी जिम्मेदारी पूरी करेगा तो एशियाई अधिनियम रद कर दिया जायेगा।[२] मैं स्वयं किसी भी अन्य आधारपर समझौता स्वीकार न करता; और एशियाई अधिनियमके सामने झुकनेके आधारपर तो कदापि नहीं। मैं समझौतेसे पहले इस अधिनियमको न माननेकी गम्भीर शपथसे वैसा ही बँधा था जैसा अब बँधा हूँ। मुझे यहाँ इसके कारण बतानेकी आवश्यकता नहीं है। केवल एक कारण बताना चाहता हूँ कि यदि कभी मैं उस अधिनियमको, जो तुर्कीके मुसलमानोंका अकारण अपमान करता है, मान लेता तो मैं हमीदिया इस्लामिया अंजुमनके अध्यक्षके पदपर बने रहनेके सर्वथा अयोग्य होता।
इसलिए मैं आपसे यह प्रार्थना करनेपर मजबूर हूँ कि आप कृपा करके मेरे द्वारा भरा गया स्वेच्छया पंजीयनका प्रार्थनापत्र और अन्य कागजात, जो आपके पास हों, लौटा दें। मैंने आपके नाम श्री गांधीका पत्र पढ़ा है और मैं उसमें लिखी बातोंसे पूर्णतः सहमत हूँ। यदि सरकारने कभी एशियाई समाजसे किये गये समझौतेका पालन, शब्दार्थ और भावार्थ, दोनों की दृष्टिसे किया तो मैं उन कागजोंको खुशीसे लौटा दूँगा। तबतक मैं उनको अपने पास रखना चाहता हूँ।
आपका विश्वस्त,
इमाम अ० का० बावजीर
अध्यक्ष
हमीदिया इस्लामिया अंजुमन
इंडियन ओपिनियन३०-०५-१९०८