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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

घोषित करना सरकारका कर्त्तव्य था। और फिर, जनरल स्मट्स द्वारा स्वीकृत किया गया पत्र साफ तौरसे प्रकट करता है कि वह कानून उन लोगोंपर कदापि लागू नहीं किया जानेवाला था, जिन्होंने स्वेच्छया पंजीयन कराया हो। पत्रका जो मसविदा कैदियोंके हाथमें रखा गया था, उसमें ये शब्द थे: "जो लोग इस प्रकार पंजीयन करा लेंगे उन सबपर कानूनमें वर्णित दण्ड लागू न किया जायेगा।"[१] मैं क्या कर रहा हूँ इसे जानते हुए मैंने विचारपूर्वक "में वर्णित दण्ड" शब्द निकाल दिये थे। यह इसलिए किया था कि अगर एशियाई लोगोंका एक बहुत बड़ा भाग समझौतेको न भी माने, तो भी जो उसे मान लेंगे वे बहरहाल उससे[२] सर्वथा मुक्त रह सकें। अतएव, इस अधिनियम के अन्तर्गत स्वेच्छासे करवाये गये पंजीयनको कानूनी जामा पहनाने का प्रस्ताव करनेमें जनरल स्मट्स न केवल उस वचनको, जो उन्होंने मुझे दिया था, भंग करते हैं, बल्कि वे उपर्युक्त पत्रकी स्वीकृतिसे भी इनकार करते हैं।

जो अधिवासी एशियाई एशियासे अभी लौट रहे हैं, सरकारका उनके स्वेच्छया पंजीयनको स्वीकार न करनेका निर्णय भी, मेरी रायमें, उसके शब्दोंका नहीं तो उसके आशयका उल्लंघन है। इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णयसे प्रकट होता है कि जनरल महोदय गत संघर्षके तत्त्वको---और यह संघर्ष पुनः छेड़ा जानेवाला है---समझनेमें बिलकुल असफल रहे हैं। उस संघर्षका उद्देश्य व्यक्तिगत अधिकारोंको प्राप्त करना नहीं, बल्कि एशियाइयोंके जातीय स्वत्वों और स्वाभिमानको जताना और सुरक्षित करना था।

ऐसी परिस्थितिमें, मेरे लिए, मेरे द्वारा अपनाये हुए मार्गके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह गया है। एक राजभक्त नागरिकके रूपमें इस एशियाई अधिनियमके आगे सिर न झुकानेके परिणामस्वरूप जो भी दण्ड मुझे मिलेगा, मैं उसके लिए पुनः तैयार हूँ। वह समझौता मेरे अथवा मेरे सहयोगियों द्वारा व्यक्तिगत कठिनाइयोंसे बच निकलनेके लिए नहीं, बल्कि यह दिखानेके लिए स्वीकार किया गया था कि हमारा संघर्ष दुराग्रहपूर्ण नहीं है। मैं अपने साथी एशियाइयोंसे यही निवेदन करनेवाला हूँ कि वे मेरे द्वारा अख्तियार किये गये मार्गका ही अनुसरण करें।

मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि आप परिस्थितिकी गम्भीरताको समझेंगे और मेरी प्रार्थनाको शुक्रवार तक या उससे पूर्व स्वीकार कर लेंगे।[३] यदि आप चाहते हों तो इससे मेरे पत्रके सम्बन्धमें आपको जनरल स्मट्ससे तार द्वारा परामर्श करनेका समय भी प्राप्त हो जाता है। आपको वे दस्तावेज--जिनमें वह प्रार्थनापत्र भी था--रियायती तौरपर दिये गये थे, न कि किसी कानूनके अन्तर्गत। मुझे विश्वास है, आप यह समझ लेंगे कि आपको उन कागजोंको अपने पास रखे रहने का कोई कानूनी हक नहीं है।

आपका विश्वस्त,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३०-५-१९०८
 
  1. देखिए "पत्र: उपनिवेश सचिवको" पृष्ठ ३९-४१।
  2. अर्थात् १९०७ के अधिनियम २ से।
  3. श्री चैमनेने इस पत्रका उत्तर तुरन्त नहीं दिया। तब गांधीजीने अपने पंजीयन सम्बन्धी कागजोंके तुरन्त वापस किये जानेकी माँग करते हुए उन्हें तार भेजा। परन्तु यह तार अप्राप्य है। देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ २८८-९१।