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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परवानेके पूरी आजादी से घूम-फिर सकेंगे। क्योंकि, सरकारकी हालत " लेने गई पूत और खो आई खसम" जैसी हो जायेगी। माल लेनेकी कोशिशमें वह लोगोंको जेल भेजनेका मौका भी खो देगी और भारतीय ज्यादा दृढ़ हो जायेंगे। इसलिए किसी भी भारतीयको डरनेका कोई कारण नहीं है। फिर, जिस समय सरकार समझौता करेगी उस समय यदि भारतीयोंमें हिम्मत हो तो वे जिसका माल बेचा गया हो उसके नुकसान की भरपाईकी माँग भी कर सकते हैं।

यह ट्रान्सवालकी लड़ाई भारतीयोंके लिए अतिशय उपयोगी है। नेटालवालोंको इसपर ध्यान देना चाहिए। नेटालके कानूनके अनुसार परवानोंके मामलेमें जेलकी सजाका विधान तो है ही नहीं। माल ही बेचा जा सकता है। अब ट्रान्सवालके उदाहरणसे नेटालके भारतीय समझ सकेंगे कि सरकार द्वारा व्यापारियोंका माल बेचनेकी यह लड़ाई तो ज्यादा आसान है। फेरीवाले सचमुच लड़ें तो वे सरकारको पस्त कर सकते हैं। इसीलिए सच्ची गरीबीमें सच्ची अमीरी है। सच्ची गरीबी किसे कहा जाये, इसपर हम फिर कभी विचार करेंगे। फिलहाल तो भारतीयोंको जो भी दुःख आ पड़े उसे सहन करनेका पाठ याद कर लेना चाहिए।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १५-८-१९०८

२७५. नया विधेयक

ट्रान्सवालके सरकारी 'गज़ट' के तारीख ११ अगस्तके अंकमें नीचे दिया जा रहा विधेयक प्रकाशित हुआ है:

१९०७ के एशियाई कानूनके अनुसार जिन एशियाइयोंने पंजीयन नहीं कराया
पर बादमें स्वेच्छया पंजीयन कराया, उनके उस
पंजीयनके वैधीकरणका विधेयक

१. प्रत्येक व्यक्ति

(क) जो १९०७ के एशियाई कानून संशोधन अधिनियम [२] के अनुसार एशियाई माना जा सकता है;

(ख) तथा जिसने फरवरी १० [१९०८ ] से १० मई तक एशियाई पंजीयकको अथवा विधिपूर्वक नियुक्त किसी दूसरे अधिकारीको ऊपर कहे अनुसार स्वेच्छया पंजीयन के लिए अर्जी दी होगी;

(ग) तथा जिसे इस कानूनके नियमोंके अनुसार पंजीयकने प्रमाणपत्र दे दिया होगा;

वह इस प्रमाणपत्रके बलपर इस उपनिवेशमें प्रवेश करने तथा रहनेका अधिकारी माना जायेगा।

२. अधिनियम की पहली धारामें वर्णित प्रत्येक एशियाईको, जो इस उपनिवेशमें प्रवेश करे या जहाँ रहता हो, पुलिस या उपनिवेश-सचिव द्वारा मुकर्रर किया गया अधिकारी जब भी माँगे तभी अपना प्रमाणपत्र पेश करना चाहिए तथा उपनिवेश-सचिव द्वारा 'गज़ट' में प्रकाशित नियमोंके अनुसार उसकी पहचानके जो प्रमाण माँगे जायें वे प्रमाण भी उसे पेश करने [ चाहिए। जो इस प्रमाणपत्रको ] पेश नहीं करेगा उसे १९०७ के कानून (२)---खूनी