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भाषण: घनिष्ठतर ऐक्य समाजमें

---निश्चित करे? मैं कहने का साहस करता हूँ कि यदि उन्होंने कभी भी वैसी नीति अपनाई तो वह निश्चित रूपसे विफल होगी। उस प्रकारकी नीति एक, दो या तीन वर्षतक चलाना शायद सम्भव हो; किन्तु मेरा निश्चित मत है कि [आगे चलकर] वे देखेंगे कि एशियाई और वतनी जातिके लोग, दोनों ही माँग करेंगे कि उनसे सम्बन्धित प्रश्नोंपर उनकी सलाहसे फैसला हो। ऐसा सोचना भी असम्भव है कि वे जातियाँ कभी यह बर्दाश्त करेंगी कि यूरोपीय जाति उनके साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करे।

गिरमिटिया मजदूर

श्री बार्करने [अपने निबन्धमें] सबसे पहले गिरमिटिया मजदूरोंकी समस्यापर चर्चा की थी। उसके सम्बन्धमें श्री गांधीने कहा:

इस प्रश्नपर हम दोनोंमें पूर्ण मतैक्य है। जब भी मुझे अवसर मिला है, मैंने सदैव कहा है कि निस्सन्देह गिरमिटिया मजदूरोंको नेटालमें लानेके परिणाम स्वरूप ही दक्षिण आफ्रिकामें एशियाई समस्या सम्भव हो सकी। गिरमिटिया मजदूरोंके आनेके बाद ही भारतसे एशियाई प्रवासियोंका यहाँ आना शुरू हुआ। गिरमिटिया मजदूरोंकी भर्ती करके नेटालने जो भयंकर भूल की है उसीका दुष्परिणाम आगेकी पीढ़ियोंको यदि भोगना पड़ा तो भोगेंगी। किन्तु इस समस्याका हल यह नहीं है कि उन्हें जबर्दस्ती उनके देश वापस भेज दिया जाये। ऐसा कहना कि पहले किसी जन-समुदायको किसी उपनिवेश-विशेषमें प्रवेश करने दिया जाये जहाँ वे अपने जीवनके सर्वोत्तम वर्ष व्यतीत करें, और बादमें उन्हें वापस उस स्थानको भेज दिया जाये जो उनके लिए अपेक्षाकृत अपरिचित हो गया है, मेरी रायमें मानवीय भावनाओंको ठेस पहुँचाना है। जिन लोगोंको गिरमिटिया प्रथाके अधीन नेटाल जानेके लिए आमन्त्रित किया गया है वे गरीब वर्गके लोग हैं। वे नेटाल आते समय भारतसे अपने सारे सम्बन्ध तोड़ आते हैं। उन्हें बताया जाता है कि उन्हें सारे सुख और सुविधाएँ मिलेंगी; उनका विश्वास होता है कि वे अपना समय अपेक्षाकृत आसानीसे बिता सकेंगे, और उपनिवेशोंके लिए पाँच वर्षतक गुलामी करनेके बाद स्वतन्त्र रूपसे अपना काम कर सकेंगे। यदि इन लोगोंको बुलाया जाये, या उन्हें भारतमें यह भी बता दिया जाये कि पाँच वर्ष पूरे होनेपर उन्हें वापस भारत लौट जाना होगा, तब भी यह सम्भव है कि वे शर्तोंसे अपरिचित होनेके कारण उन शर्तोंको स्वीकार कर लें। लेकिन मैं ऐसे करारको न्यायसंगत नहीं कहूँगा। यदि वे लोग शर्तोंसे परिचित हों और तब नेटाल आयें, तब भी मैं यही कहूँगा कि उनसे वापस लौट जानेकी आशा करना, या उन्हें वापस भेजना अमानुषिक होगा।

बागान-मालिकोंके हितार्थ

बेहतर नीति तो यह होगी कि गिरमिटिया प्रथा बिलकुल समाप्त कर दी जाये; और जो अवधि तय हो वह तीन वर्षकी हो। यदि मैं नेटालका निरंकुश शासक होता तो मैं तीन वर्षकी अवधि भी नहीं तय करता, बल्कि उस प्रथाको एकदम समाप्त कर देता। उन शर्तोंके अनुसार नेटालमें आनेवाले भारतीयोंका कोई लाभ इस मजदूरी प्रथासे नहीं हुआ है, और न उपनिवेशोंका ही लाभ हुआ है। इससे चन्द बागान-मालिकोंको तो लाभ पहुँचा है, लेकिन उनका लाभ प्रवासियों की कीमतपर हुआ है, और प्रवासियों में मैं अपने देशवासियोंको भी शामिल करनेका