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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कर लिया है। उसके फलस्वरूप समस्याका दायरा तत्वतः काफी छोटा हो गया है, और अब हमें घनिष्टतर एकतापर एशियाइयोंके निवासके प्रभावपर विचार करना है, न कि एशियाई प्रवासियोंके आगमनके प्रभावपर।

प्रवासी कानून

केप और नेटालके प्रवासी कानूनके अधीन उन एशियाइयोंको प्रवेश करनेकी अनुमति है जो शैक्षणिक योग्यताकी उसी कसौटीपर खरे उतर सकें जो देशमें प्रवेश करनेवाले किसी अन्य जातिके लोगोंपर लागू है। उस कानूनका मुख्य उद्देश्य बड़ी संख्यामें एशियाइयोंके प्रवेशको रोकना है। सन् १८९६ में स्वर्गीय श्री एस्कम्बने[१] पहली बार श्री चैम्बरलेनसे[२] एशियाई बहिष्करण विधेयक पास करनेकी अनुमति माँगी थी, और श्री चैम्बरलेने सभी उपनिवेशोंके मार्ग-निर्देशनके लिए यह नीति निर्धारित की थी कि विभेदका आधार रंग नहीं, बल्कि शिक्षा या ऐसी ही कुछ योग्यता होनी चाहिए। उस नीतिका अबतक अनुसरण किया गया है। प्रधानमन्त्रियोंके सम्मेलनमें श्री चैम्बरलेनने उक्त मत उनके सामने स्वीकृतिके लिए रखा था।[३] शैक्षणिक योग्यताके नियमके अनुसार यदि बहुत थोड़ेसे ही एशियाई नेटालमें प्रवेश कर सके थे तो उसका कारण यह नहीं था कि भारतमें बड़ी संख्यामें शिक्षित भारतीय नहीं थे, बल्कि यह था की एशियाइयोंको अपनी योग्यताओंके उपयोगके लिए भारत, चीन और जापानमें पर्याप्त अवसर सुलभ थे। लेकिन कुछ ऐसे [ शिक्षित एशियाई ] भी थे जिनका व्यापारियों, फेरीवालों और दूसरे तबकेके एशियाइयोंके पीछे-पीछे आना निस्सन्देह आवश्यक था। यदि उन्हें दक्षिण आफ्रिकामें नहीं आने दिया जाता, और यदि उनके प्रवेशपर भी सख्ती से रोक लगा दी जाती है, तो ऐसी दशामें समस्याका हल अपेक्षाकृत अधिक कठिन होगा। यदि यह स्वीकार कर लिया जाये कि उन एशियाइयोंको, जो दक्षिण आफ्रिकाके अधिवासी रहे हैं, दक्षिण आफ्रिकामें रहना चाहिए, और उनके साथ न्यायोचित व्यवहार होना चाहिए, तो यह स्वाभाविक ही है कि ऐसे लोगोंको भी आनेकी अनुमति होनी चाहिए, जो उनका नेतृत्व और विभिन्न जातियोंके बीच दुभाषियेका काम कर सकें। उन एशियाइयोंकी आगे क्या स्थिति होगी जिन्हें दक्षिण आफ्रिकामें बसे रहनेकी अनुमति थी? दक्षिण आफ्रिकामें बस जानेवाले लोगोने कुछ शर्तें निर्धारित की थीं जिनके अनुसार इस राष्ट्रको, जो अब मूर्तरूप ग्रहण करने जा रहा है, रहना होगा। ऐसी स्थितिमें क्या किसीके लिए यह सम्भव है कि वह एशियाई अधिवासियोंकी समस्याको अपने मनसे मिटा दे? उनका परिशीलन बहुत ही दिलचस्प और शिक्षाप्रद है; किन्तु यह बात मेरी समझमें नहीं आती कि दक्षिण आफ्रिकाको अपना घर बना लेनेवाले जितने लोगोंके लेख मैंने पढ़े हैं, उनमें से किसीने इस बातपर विचार नहीं किया कि एशियाइयों अथवा स्वयं वतनी लोगोंकी भावनाएँ क्या हैं। उनकी स्वीकृतिके लिए सुझाये गये निदानोंके सम्बन्धमें वे क्या कहना चाहेंगे? क्या अभिप्राय यह है कि एशियाई या रंगदार जातियाँ अपने प्रति होनेवाले व्यवहारका वही निदान स्वीकार करनेको विवश हैं जिसे ज्यादा शक्तिशाली जाति--यूरोपीय जाति

 
  1. और
  2. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ४१७ और ४१८।
  3. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३९२