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२८०. भेंट: 'ट्रान्सवाल लीडर' को

[ जोहानिसबर्ग
अगस्त २१, १९०८ के पूर्व ][१]

शिक्षित भारतीयोंके प्रवेशके प्रश्नपर भारतीयोंकी स्थितिके बारेमें बहुत भारी गलतफहमी है। हमारा दावा है कि प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम ---जैसा कि वह अभी है।---शिक्षित भारतीयोंको देशमें आनेसे मना नहीं करता। परन्तु यदि कोई यह कहे कि सैकड़ों भारतीय युवकोंको इस देशमें आने देना चाहिए तो यह भारतीयोंका कहना नहीं है। हम तो केवल इतना ही चाहते हैं कि चमड़ी के रंगको "रुकावटका आधार" नहीं बनाया जाये। और यह भी कि शिक्षितोंके धन्ध करनेवाले ऐसे भारतीयोंको भी इस देशमें आने दिया जाये जिनके आनेसे समाजके सर्वांगीण विकासमें मदद मिलती हो। इससे शायद सारे वर्षमें एकका भी हिसाब न बैठेगा। क्योंकि ऐसे आदमियोंकी यहाँपर बड़ी संख्यामें गुंजाइश ही नहीं है। व्यापारमें तो वे होड़ कर ही नहीं सकते। और अन्ततोगत्वा एशियाई सवाल बहुत कुछ व्यापारका ही सवाल है। परन्तु इस सिलसिलेमें एक बात भुला दी जाती है। वह यह है कि शिक्षाके प्रश्नको भारतीयोंने नहीं, जनरल स्मट्सने उठाया है। वे चाहते हैं कि कानूनके उनके इस अर्थको भारतीय स्वीकार कर लें। भारतीयोंका अपमान करनेवाला कोई कानून जब वे बनाना चाहते हैं, तब उन्हें इस बातकी परवाह नहीं होती कि भारतीयोंकी सलाह ले लें। परन्तु जब समझौतेके सरकारसे सम्बन्ध रखनेवाले किसी अंशके पालनका प्रश्न उपस्थित होता है तब वे इस तरहकी कोई बात कहते हैं कि अगर आप शिक्षित भारतीयोंके आगमनको रोकनेके सम्बन्धमें---चाहे उनकी शैक्षणिक योग्यता कुछ भी क्यों न हो---लगाई जानेवाली यह नई बन्दिश स्वीकार कर लें तो मैं समझौतेका बराबर पालन कर दूँगा। वे चाहें तो कानूनको रद करनेके अपने वचनको पूरा कर दें और साथ ही हमारी भावनाओंका निरादर करके भारतीयोंके प्रवेशपर भी नई शैक्षणिक बन्दिशें और शर्तें लगा दें। तब हम उस प्रश्नके स्वतन्त्र गुण-दोषोंको लेकर उस प्रश्नपर भी उनसे लड़ लेंगे। वर्तमान विधेयकके बारेमें भी उन्होंने हमसे कभी सलाह नहीं ली है। मैं मानता हूँ कि इस विधेयकमें सरकारकी तरफसे समझौतेको भंग किया जा रहा है। फिर भी वे उस कानूनको रद करनेवाले विधेयकको मंजूर करनेसे इनकार कर रहे हैं जिसका मसविदा खुद उन्होंने तैयार किया है। और इसका कारण क्या है? यही कि उसके एक वाक्यांशपर हमारी आपत्ति है जिसमें दूसरी बातोंके साथ साथ शिक्षित भारतीयोंके प्रवेशपर रोक है।

[अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २२ -८-१९०८
 
  1. लीडरको यह भेंट, जिसका मूल सूत्र प्राप्त नहीं है और जो इंडियन ओपिनियन, २२-८-१९०८ में पुनः प्रकाशित हुआ था, निश्चय ही "भेंट: ट्रान्सवाल लीडर" को ( २१ अगस्त १९०८ ) पृष्ठ ४६५-६७ से पहले आना चाहिए, जो इंडियन ओपिनियनमें २९-८-१९०८ को पुनः प्रकाशित हुआ था।