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पत्र: 'रेंड डेली मेल' को

केपके विक्रेता अधिनियमपर श्री सावरके विचार और प्रवासी अधिनियमकी सर्वसाधारण शैक्षणिक कसोटीकी आपने तुलना की है, जिसका असर ब्रिटिश उपनिवेशमें एशियाइयोंकी अमर्यादित बाढ़को रोकनेका काम करेगा। मैं स्मरण दिला दूँ कि श्री सावरका वास्ता विद्वेषी व्यक्तियोंसे बनी एक नाटकीय अपील-अदालतसे पड़ा था। मैं भी उन्हीं माननीय सदस्यसे सहमत हूँ और जो कुछ उन्होंने किया है, यदि अपनेमें से एकको परवाना देनेके सवालपर विचार करनेके लिए सहयोगी व्यापारी ही अपील-अदालत बने हुए हों तो उस परिस्थितिमें मैं भी माननीय सदस्यसे सहमत होऊँगा, इतना ही नहीं, उनसे भी आगे जाऊँगा। वह न केवल दम्भ[१] और कपटी[२] है, बल्कि स्पष्ट रूपसे अन्याय है। फिर भी मैं ऐसे प्रवासी अधिनियममें कोई दोष नहीं देखता जो जातीय और रंग-भेदपर आधारित न होकर, शैक्षणिक योग्यतापर आधारित है और किसी वर्गके लोगोंके मनमाने रूपमें आनेका विरोध करता है। मेरे देशवासियोंकी माँग यदि केवल शब्दोंका ही झगड़ा हो, तो निःसन्देह उपनिवेशकी विधानसभाको एक शाब्दिक झगड़ा मान्य करनेकी उदारता दिखा सकना चाहिए। तथ्य यह है कि वह कोई शाब्दिक झगड़ा नहीं है। उपनिवेश एक नये सिद्धान्तको प्रतिष्ठित करना चाहता है और एक तीव्र रंगभेदकी रेखा खींचना चाहता है। जम्बेजीके दक्षिणमें रहनेवाले समस्त सभ्य लोगोंके लिए स्वर्गीय श्री रोड्सने समानाधिकारका जो सूत्र दिया था, यह उसका उल्लंघन करना चाहता है और यह ब्रिटिश-नीतिमें मौलिक परिवर्तन भी करना चाहता है। यदि लगभग दो वर्षोंतक कष्ट सह लेनेके बाद ब्रिटिश परम्पराओंमें जबर्दस्त परिवर्तनको हम चुपचाप स्वीकार कर लें, तो हम आदमीसे कुछ कम ठहरेंगे। यद्यपि नये विधेयकके अन्तर्गत हमारी परिस्थिति पहलेसे कुछ अधिक सही बनाई जा सकती है, किन्तु फिर भी यदि हम इस नई पथभ्रष्टताका सफलतापूर्वक मुकाबला न कर सकें, तो भी हम उससे मिलनेवाले लाभोंको अस्वीकृत कर देंगे।

कदाचित् आप सोचते हैं कि प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमकी व्याख्याके रूपमें श्री सोराबजीका देशनिकाला अन्तिम शब्द है। ऐसा है या नहीं, सो भविष्य बतायेगा। तबतक मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि श्री सोराबजी निषिद्ध प्रवासीकी तरह प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत दण्डित नहीं किये गये थे, बल्कि एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत अपंजीकृत भारतीय होनेके कारण दण्डित किये गये थे। वे उस प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमकी निर्योग्यताके अन्तर्गत आ गये जो एशियाई अधिनियमने उनपर लाद दी थी और जिसे सोराबजी किसी भी हालतमें स्वीकार[३] नहीं कर सकते थे।

[ आपका, आदि,
मो० क० गांधी ]

[ अंग्रेजीसे ]
रैंड डेली मेल, २६-८-१९०८
 
  1. और
  2. इन शब्दोंके अंग्रेजी पर्यायोंका उपयोग श्री सावरने केप विधान-सभामें किया था।
  3. देखिए "सोराबजी शापुरजीका मुकदमा---२", पृष्ठ ३५० और "सोराबजी शापुरजीका मुकदमा---३", पृष्ठ ३७०-७१।