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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं यह निवेदन करनेकी धृष्टता करता हूँ कि सभाकी इस अतीव नम्र प्रार्थनामें कोई नई बात नहीं है। इसके अतिरिक्त सभाकी प्रार्थना तर्कसंगत है और भविष्यमें जिस संघर्षके भयानक होनेकी सम्भावना है, उसके पहले मैं एक बार सभा द्वारा वांछित राहतकी माँग करता हूँ। मैं सरकारको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि भारतीय समाजकी तरफसे सरकारको जान-बूझकर परेशान करने या अपने आपको देशके कानूनसे परे करने की कोई इच्छा नहीं है।

इसलिए मेरा संघ नम्रतापूर्वक विश्वास करता है कि अभी भी उपनिवेशकी राजनीतिक बुद्धिमत्ता इस कठिनाईसे बाहर निकलनेका कोई रास्ता निकालेगी और उस संघर्षको समाप्त करेगी जो लगभग दो वर्षोंसे चल रहा है और जिसके कारण मेरे संघ द्वारा समाजको हर प्रकारकी भारी हानि उठानी पड़ी है।

[ आपका आज्ञाकारी सेवक
ईसप इस्माइल मियाँ
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ ]

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २९-८-१९०८

२८६. पत्र: 'रैंड डेली मेल' को[१]

[ जोहानिसबर्ग ]
अगस्त २५, १९०८

सम्पादक
[ 'रैंड डेली मेल' ]
महोदय,

यह समझमें नहीं आता कि ब्रिटिश भारतीयोंकी प्रत्येक माँगको गलत क्यों समझा जाता है। मेरे देशवासी स्थानीय संसदमें अभी-अभी स्वीकृत विधेयकको[२] एशियाई अधिनियमसे अच्छा मानते हैं, किन्तु वे यह स्वीकार नहीं करते कि उनकी गुलामों जैसी स्थिति दूर हो गई है। शिक्षित भारतीयोंका दर्जा अनिश्चित है, इसी एक तथ्यसे यह जाहिर हो जाता है कि उनके साथ किसी अन्य प्रकारका व्यवहार अभीष्ट नहीं है। क्या साझेदारीके मेरे दावेपर क्रोध प्रकट नहीं किया गया? क्या सदनमें उसका खण्डन करनेपर जनरल स्मट्सका लगातार हर्षध्वनिसे स्वागत नहीं किया गया? और फिर भी जो माँग मैंने प्रस्तुत की थी, उसमें कौन-सी विचित्रता थी? महोदय, आप अच्छी तरह जानते हैं कि भारतके पब्लिक स्कूलोंमें हमें कानूनको दृष्टिमें साझेदारी और समानताका सिद्धान्त सिखाया जाता है, किन्तु ये ऐसे शब्द हैं कि उपनिवेशमें यदि इन्हें जबानपर भी लायें, तो उसपर अदालतके बाहर हँसी उड़े बिना नहीं रहेगी।

 
  1. यह इंडियन ओपिनियनमें "श्री गांधी और 'मेल'" शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था।
  2. एशियाई पंजीयन संशोधन विधेयक।