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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

उन धाराओंके प्रति, जो ऐसी अँगुली-निशानीको अपेक्षित बनाती हैं, उतना अधिक नहीं है, जितना कि उसमें निहित अनिवार्यताके तत्त्वके प्रति। उस आधारपर हमने कानून रद हो जानेपर स्वेच्छया पंजीयन करा लेनेका प्रस्ताव बार-बार रखा है और आज भी, जबकि काफी देर हो गई है, हम सरकारसे जहाँतक हो सके उसी रास्तेको अपनानेका आग्रह करेंगे, जिसका हमने अनेक बार प्रस्ताव किया है।

हम मानते हैं कि संसदके कार्यावकाश-कालमें कानूनको रद करना सम्भव नहीं है, और आपकी बार-बार की इस सार्वजनिक घोषणाकी ओर भी हमारा ध्यान गया है कि कानूनके रद होनेकी कोई सम्भावना नहीं है। फिर भी हम यह बता देना चाहते हैं कि विभिन्न सरकारी सूचनाओं द्वारा पंजीयनके लिए निश्चित की गई अवधियाँ समाप्त हो गई है और इसलिए अब जो भी पंजीयन कराया जाता है वह निश्चित रूपसे स्वेच्छया होगा, जिसको स्वीकार करनेके लिए हमने सरकारसे मूलतः प्रार्थना की थी।[१]

इन परिस्थितियोंमें हम एक बार फिर सरकारके सामने विनम्र सुझाव रखेंगे कि १६ वर्षसे[२]अधिक उम्र के सभी एशियाइयोंको एक निश्चित अवधिके भीतर, उदाहरणार्थ तीन महीने के भीतर, पंजीयन करा लेनेकी सुविधा दी जाये; इस प्रकार पंजीकृत लोगोंपर अधिनियम[३] लागू न हो; और सरकार इस प्रकारके पंजीयनको कानूनी रूप देनेके लिए जैसा उचित समझे, करे। इस प्रकारका पंजीयन उन लोगोंपर भी लागू होना चाहिए जो अभी उपनिवेशसे बाहर हैं लेकिन बादमें वापस आ सकते हैं और अन्यथा वापस आनेके हकदार हैं।[४]

हमें इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि एशियाइयोंका पंजीयन करते समय जहाँतक सम्भव हो[५] कानून तथा विनियमोंकी आवश्यकताओंको पूरा किया जाये, बशर्ते कि पंजीयन अधिकारी कोई ऐसी जानकारी प्राप्त करनेपर जोर न दें जिससे प्रार्थीकी धार्मिक भावनापर चोट पहुँचे; और पंजीयन अधिकारियोंको उन लोगोंको अँगुली-निशानीसे छूट देनेका स्वविवेकाधिकार हो जो अपनी शिक्षा, सम्पत्ति और सार्वजनिक चरित्रके लिए सुविख्यात हैं या वैसे भी सरलतासे पहचाने जा सकते हैं। इस प्रकारके मामलोंमें हमारा आग्रह है कि अधिकारियोंको यह अधिकार हो कि वे प्रार्थीके हस्ताक्षरको ही शिनाख्तका प्रमाण मान लें।

यदि सरकार इन सुझावोंको मान ले और इन शर्तोंपर पंजीयन स्वीकार[६] कर ले तो हम मानते हैं, पंजीयनके लिए निश्चित अवधिमें इस कानूनके अन्तर्गत होनेवाले सारे मुकदमे

  1. स्वेच्छया पंजीयनका प्रस्ताव सर्वप्रथम ट्रान्सवालके भारतीयोंकी २९ मार्च १९०७ की सार्वजनिक सभामें किया गया था। यह प्रस्ताव एशियाई कानून संशोधन अध्यादेशके अन्तर्गत होनेवाले सभी एशियाइयोंके अनिवार्य पंजीयन के स्थानपर विकल्पके रूपमें था। देखिए खण्ड ६, पृष्ठ ४२०।
  2. "१६ वर्षसे अधिक उम्रके"--ये शब्द कार्टराइटके मसविदेमें नहीं हैं। गांधीजी द्वारा बढ़ाये गये शब्द थे–--"१६ वर्षसे अधिकके"। प्रिटोरिया आर्काइव्जकी प्रतिमें प्राप्त अतिरिक्त शब्द "उम्र" से ऐसा जान पड़ता है कि कार्टराइटका यह मसविदा, गांधीजी द्वारा उसमें किये गये संशोधनोंके साथ (एस० एन० ४९०७), दुबारा टाइप किया गया था और इस परवर्ती मसविदेमें कुछ मामूली शाब्दिक परिवर्तन किये गये थे। यह परवर्ती मसविदा उपलब्ध नहीं है।
  3. मसविदेमें था "अधिनियमके अन्तर्गत सजाएँ लागू न हों" जिसे गांधीजीने काट कर "अधिनियम लागू न हो" कर दियाँ।
  4. यह वाक्य मसविदेमें नहीं है और गांधीजीने जोड़ा है।
  5. उपनिवेश-सचिवकी प्रतिमें ये शब्द रेखांकित हैं, किन्तु मसविदेमें तथा इंडियन ओपिनियन में नहीं हैं।
  6. मसविदेमें "स्वीकार" करनेके बदले "फिर खोलने" का उल्लेख था।